पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११०९

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क्या पुस्तकों में अव महा कार्य और अद्भुत व्यापार करने की शक्ति नहीं रही? हम तो जानते है कि उन जैसी सर्वदा थी वैसी ही अब भी बनी है। आज कल हमारे शिक्षित समाज में चाक चक्य चिकनाहट की जो चाल है: पश्चिमीय सभ्यता की गन्धि जो उस में फैली है. प्रेमाराधन का सोता जो उस में धड़धड़ाहट से बह रहा है, यह किसका फल है ? यह केवल उन विषयों की पुस्तकों के अधिक प्रचार का फल है । पुस्तकों के पाठ से विचार उत्पन्न होते हैं, विचार होने से अभिलषित पदार्थ के प्राप्त करने की इच्छा होती है, इच्छा होने से मनुष्य कार्य करता है और कार्य करने से फल प्राप्त होता है । बट सरीखे महावृक्ष का मूल कारण जैसे उस का छोठा सा बीज मात्र है संसार के वर्तमान महाकार्यों का सूत्रपात वैसे ही मनुष्य के लिखे हुये चिन्ह मात्र अक्षरों से हुआ है । विचार कर देखो पौराणिक लोग कौन सा ऐसा गण कार्य अपनी कथा में वर्णित करते हैं जो वर्तमान में पृथ्वी पर पुस्तकों के कार्य से बढ़ कर हो । देवादिदेव भगवान महादेव के कैलाश का दर्शन होना हमारे लिये दुस्तर है, वीरभद्र का वह प्रचण्ड कोप संसार में नाना प्रकार के दुष्कर्म होते हुए देख कर के भी शान्त हो गया है. भक्तों को संकट से परित्राण न होते देख कर भगवान के भक्तरक्षक नाम में भी हमें सन्देह होने लगा है, परन्तु जब तक पुराण हैं, अवतारों में हमारी श्रद्धा बनी रहेगी, सब चला गया है परन्तु हम उस का पुस्तक में विवरण रहते होना मानेगे । पापनाशिनी काश वे में पवित्र विश्वीश्वर का जगत प्रसिद्ध मन्दिर कैसे प्रतिष्ठित हुआ है ? केवल पुराण पुस्तक द्वारा पुण्य धाम अयोध्या के पाप तापनाशी राम मंदिर के सुवर्ण कलश को ऊंचे आकाश में किसने स्थापित किया है, संस्कृत और भाषा रामायण के प्रणेता वालमीक और तुलसीदास ने । इन दोनों महापुरुषों के पास क्या था ? संसार में धन नहीं, बल नहीं, कुछ भी सहाय नहीं,दोनों एकाकी संसार में भ्रमण करते हुये रामचरित को मधुर और अनुपम स्वर में गाते फिरते थे । वही उन का स्वर आकाश को उठा और ऊंचे उठकर संसार में फैल गया । जहां तक रामायण का स्वर पहुचा वहा' तक वालमीक और तुलसीदास ने मनुष्य के हृदय पर अधिकार किया है । इसी भांति भारतवर्ष भर में फैले हुए एक से एक बढ़ कर उन मन्दिरों को किस ने बनाया है, जिन में योगीन्द्र भगवान कृष्ण चन्द्र की मूत्तिर्ययां विराजमान हैं ? केवल भागवतादि श्री कृष्ण चन्द्र के गुण वर्णन करने वाले ग्रंथो ने । यह हमारी बात आप को आश्चर्य जनक बोध हो, परन्तु हम कहते हैं कि इस में अणुमात्र भी भूठ नहीं है । लेखन कार्य जिस का मुद्रण एक सरल स्वरूप मात्र है, मनुष्यमात्र के लिये एक चमत्कारिक सृष्टि उत्पन्न कर रहा है. यह लेखन कार्य भूत काल और दूर देश की घटनाओं को एक अद्भुत नीवन रूप से वर्तमान समय में हमारे सामने ला घरता है, तीनों काल और पृथ्वी पर के समस्त स्थानों के साथ इस हमारे वर्तमान समय और इस हमारे स्थान का जहा हम हैं अनन्त काल के लिये विचित्र सम्मेलन कर देता है । मनुष्य के जितनी वस्तुएँ है उन सब का इस ने रूपान्तर कर दिया है, मनुष्य के समस्त बड़े २ कार्य इसने पलट दिये हैं, क्या शिक्षा क्या दीक्षा, क्या राज्य और क्या अन्य कार्य । प्रथम शिक्षा को ही लीजिये । विद्यालयों का स्थापन करना वर्तमान समय का एक अति उत्तम और पूजनीय कार्य है । परंतु पुस्तकों से इन विद्यालयों के भी रूप में, मूल कारण में, अन्तर पड़ गया है . विद्यालयों की भर भराहट उस समय अधिक थी जिस समय पुस्तकों का प्राप्त होना कठिन था । उस समय एक एक पुस्तक के लिये ५०० अथवा १००० मुद्रा पुस्तक के स्वामी को भेंट करना कुछ अधिक नहीं समझा जाता था । उस समय जब किसी मनुष्य को किसी विषय में जनना होता था तो उसे उस विषय के ज्ञाता पण्डितों को इकट्ठा करना होता था । पहिले जब किसी को, मान लो, शंकर स्वामी का वेदान्त पर भाष्य सुनना होता था तो उस को स्वयं शंकर स्वामी से भेंट करना होता था । सहस्रो मनुष्य विद्वानों के द्वार पर पढ़े हुए उन की कृपा सम्पादन करना चाहते थे । बिना नाक रगड़े उस समय विद्या प्राप्त होना कठिन था । विद्वानों के भ्रकुटी पात से बड़े २ भूपति थर्रा उठते थे । राजाओं ने इसी लिये कि एक स्थान पर सब विद्याओं के जानने वाले मिल सकें विश्वविद्यालय स्थापित किये । इन में प्रति शास्त्र का एक २ महाविद्वान नियत होता था जो वहां उस विषय का मुख्य आचार्य समझा जाता था । पुराने समय से लेकर आज तक पुण्य धाम काशी की इसी लिये विद्यापीठ में गणना है कि भारत वर्ष में इस स्थान पर छुओं लेखक और नागरी लेखक १०६५