पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१११२

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देखि तूं आयो प्रगट बसन्त । दै प्यालो हमको नतस होत हमारी अन्त ।। हमें जगत को गम नहीं जो तू मद नहिं देत । मंगल में जानी हमहिं क्यों नहिं जम करि लेत ।। देखत नहिं इहि ओर तू कैसो बढ्यौ अनन्द । मंगल मंगल कहत सब मतवारे नर वृन्द ।। गंगा में चहुँ ओर सौं दोपहि दीप दिखात । नावन सो सुरसरि छिपी जल नहिं नेक लखात ।। आनि परत धुनि कान मैं मधुर सुरन के संग । तैसेही कहुँ बजि उठत सारंगी मिरदगा ।। तैसी चूमत नाव सब जल में झोंका खाइ । मनु हम सो मतवार कोउ झूमत रंग जमाइ ।। कबहु बीच मैं बपि उठत नरसिंहा धुनि घोर । कबहुं नाव है परस पर लड़त मचावत सोर ।। कबहु जुगौड़ा नाचि के लेत बेसुरी तान । आपु हिलत बाजी हिलत और हिलत जल जान ।। कबहुं पार जल के छुटत दारू जंत्र अपार । कबहु गुबारे उड़त हैं नभ मैं बांधि कतार ।। कबहुं श्रवन पुट में परत मैना की वह तान । जाहि सुनत मुनि जनन के छूटन तुरतहि ध्यान ।। कहुं तौकी के सुरन की सुभग सुनात अलाप । मधुर सरंगी कहु बजत कहुं तबलन की थाप ।। कोऊ मारे भौंह के कोउ नैनन के तीर । कोऊ बेधे तान के ब्याकुल कामी भीर ।। कोऊ के जिय घसि रही नाचन में मुरिजान । कोऊ के उर मैं बसी सो उरवसी समान ।। हंसत कोऊ धावत कोऊ मगन कोऊ कोउ धीर । कोउ नाव बंधावहीं जहं नावन की भीर ।। मनु बिमान सब देव के सुरसरि में दरसात । के तारन की मंडली घूमत है या रात ।। देखि न तू ऐसी समय क्यौं नहिं जस करि लेत । हमसे मद मतवार को क्यों न सुरा भरि देत ।। दै इक प्यालो औरहू छकि कै रंग जमाव । जात अबै हम देखिवे दक्षिनपति की नाव ।। हाय हाय तह कछु नहीं सूनी नाव लखात । गम छायो चहुँ ओर सो तासों काछु न दिखात ।। करत गवैया बैठि के चें चें तह द्वै तीन । नहिं प्यालो नहिं रंग कछु हाय कहा विधि कौन ।। हवै निरास तहं सो फिरयो उतरि गयो सब रंग । दै प्याले दै तीन फिर जमैं हमारो ढंग ।। ढाल दाल मदिरा अरी खरी कहा पछितात । काशिराज के दरस हित राम नगर हम जात ।। काशिराजहू हवा नहीं यह भाखत सब कोय । मुख सो मुख ले भागि के फिरि आए हम रोय । गिरत परत मागे हमहु आए तेरे पास । दै इक प्यालो औरइ मिटै सकल जग त्रास ।। देख्नु देख्नु बीती निसा दिसा वारुनी लाल । दै हमकोहूँ वारुनी मधिवारुनी रसाल । सीतल पौन चले लगी उडुगन जोति मलीन । चकई सों चकवा मिले दीपक दुति भई छीन ।। प्रवन परत धुनि भैरवी मंद मंद नव तान । देख्नु न उठि उठि द्विजगनन लायो निज निज ध्यान ।। देर होत है और भरू इक प्यालो मतवारि । उतरत है निसि को नसा यह जियमांझ विचारि ।। बंधी खुमारी रैन को टूटै सो न खिलार । दै इक प्यालो औरहू मदिरा चोखो हार ।। मंदिर में सब कोड कहत लाग्यौ छप्पन भोग । महा महा उच्छव भयौ जुरे बहुत से लोग ।। प्यालो छप्पन तू हमें मेरी जान पियाव । तौ हम सांचो मानहीं छप्पन भोग उछाव ।। मुनशी प्यारेलाल ने व्याह खरच किय बंद । कछु मदिरा रोकी नहीं जो तू सकुचत मंद ।। इंसिदादे दुखतरकुशी करत अहे प्रभु लाट । पै कोउ नहिं ढरकावहीं तेरो मदिरा माट । ब्राहमी मैरिज बिल भयो पास गजट के माहिं । अब तो प्यालो दै अरी क्यों भाषत है नाहिं ।। इन्तिजाम सब कोउ करत सब बातन को जान । तेरी पूछ कहूँ नहीं यह तू निश्चय मान ।। सरकारहि मंजूर जो तेरो होत उपाय । तो क्यों नहिं मदिरान मैं देती टिकस बढ़ाय ।। तू तो है या राज की परम निशानी आप । सब चैहे पै तू सदा रहिहे विनहीं पाप । राज चिन्ह जब एकहू नहिं मिलि हैं सुन प्रान । बहु बोतल के टूक को मिलिहै तबहु निसान ।। यह तो परम अभीष्ट है तेरी बढ़ती होय । नाहीं तो क्यों मौन धरि बैठे हैं सब कोय ।। डगर डगर मैं हवै गई तेरी प्रगट दुकान । कोउ बरजन हारो नहीं जो कछु करै वखान ।। इत मंदिर है देव को इत मदिरा की हाट । इत मसजिद गिरिजा उतै इत शराब के ठाट ।। बोरडिंग हक ओर है नारसमल इक ओर । एक ओर इंट्यूट है मधि मदिरा घर जोर ।। इत भैरव गनपति उतै इत देवी उत देव । तिनके मधि मदिरा भरी यह विचित्र अति मेव ।। मंदिर सो मसजिदन सो गिरजनहू' सो जान । स्कूलन सो हुँहवा लखो बढ़तौ मद्य दुकान । लाव सक सब छोडि कै घरम भीति विसराइ । पान करत है मय सब मंगल महा मनाह । एक्ट पांच पुनि आठ अरु पैतालिस पच्चीस । कोऊ कछु मानत नहीं तनिक न नावत सीस ।। पहिरि पहिरि पतलून अरु टोपी चक्कर दार । कोट बूठ जेबी घड़ी छड़ी सूहाथ संवार ।। कोऊ कहत मद नहिं पियै तौ कछु लिख्यो न पाय । कोउ कहत हम मद्य बल करत वकीली आय ।। मरहि के परभाव सौ रचत अनेकन ग्रन्थ । मद्यहि के परकास सों लखत धरम को पन्थ ।। मदिराही को पान करि करत ईस को ध्यान । सबै काज मद सों सरत यह निश्चय जिय आन ।। मदिराही के पान हित हिंदू धरमहि छोड़ि । बहुत लोग कृश्चन बनत निज कुल सो मुख मोड़ि ।।

भारतेन्दु समग्र २०६८