पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११२१

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श्रीचरण युगल सरसीरुहेषु निवेदनम्, कहयो बृत सब आजु को, पंडया जू समझाय । जल प्रयान सह श्री चरन, दरसन हेतु उपाय ।। कवि स्यामल स्यामल करत, कच स्यामल उघान, मोहन राजसभा रहे, काज करन के ध्यान ।।२।। मैं बिनु सिक्के श्रीसमा, है इकलो इत ज्ञात । संकित ही रहियो सतत, सब विधि इतहि अजान ।।३।। तासो उचित विचरि जौ आयसु दीजै जेहि । मोहन मोहि न छोड़ही, पद जोहन जौं मोह ।।४।। श्रीराधा कृष्णदास जी उर्फ बच्चा बाबू को लिखा गया पत्र। "अजीज अज जान मन बच्चा बहादुर । मेरे दिल के सदफ के वेबहा दुर ।। बहुत ही जल्द भेजो नीलदेवी । इसी दम चाहिए इक उसकी कापी ।। वहां पर कृष्ण खैरियत से पहुचा । तुम इसका हाल भी चट हमको लिखना ।। कोई था माधवी के यां से आया । य भी दर्याफत चन्द्रावली कल । बिरज, बी. दास के यहां से मुवहल ।। -हरिश्चन्द्र म० कु० श्री बाबू रामदीन सिंह जी को लिखे गये कुछ पत्र। प्रियवेरेषु, अब की बकरीद में भारतवर्ष के प्रायः अनेक नगरों में मुसलमानों ने प्रकाश रूप से जो गोबध किया है इससे हिंदुओं की सब प्रकार से पो मान हानि हुई है वह अकथनीय है । पालिसी परतन्त्र गवर्नमेंट पर हिन्दुओं की अकिंचितकरता और मुसलमानों की उग्रता भलीभांति विदित है यही कारण है कि जानबूझ कर भी वह कुछ नहीं बोलती, किन्तु हम लोगों की जो भारत वर्ष में हिन्दुओं के ही वीर्य से उत्पन्न हैं ऐसे अवसर पर गवर्नमेंट के कान खोलने का उपाय अवश्य करणीय है । इस हेतु आपसे इस पत्र द्वारा निवेदन है कि जहां तक हो सके इस विषय में प्रयत्न कीजिए । भागलपुर, मिरजापुर, काशी इत्यादि कई स्थानो में प्रकाशयरुप से केवल हमारा जी दुखाने को हांकाठोकी यह अत्याचार हुआ है जो किसी किसी समाचारपत्र में प्रकाश भी हुआ है । आप भी अपने पत्र में इस विषय का भलीभांति आन्दोलन कीजिए । सब पत्र एक साथ कोलाहल करेंगे तब काम चलेगा । हिन्दी, उर्दू, बंगाली, मराठी, अंग्रेजी सब भाषा के पत्रों में जिनके संपादक हिन्दू हों एक बैर बड़े धूम से इसका आंदोलन होना अवश्य है, आशा है कि अपने शंका भर आप इस विषय में कोई बात उठा न रखेंगे। भवदीय -हरिश्चन्द्र प्रियवरेषु, कल पुस्तकें ठीक समय पर मिल गई । उसमें कई ऐसे हैं जो मेरे यहां है । सिंहपत्रावली बहुत बिकने की वस्तु है अर्थात हजारों की नहीं काल पाकर लाखों की ही बिकेगी । एक तो इस को छाप कीजिए और एक मुहनाद अही बीबीफातिमा और हसन हुसैन का जीवनंदसिह की मुसलमान मात्र लगे । मुल को बड़ी लज्जा है कि ऐसी कोई वस्तु आप मैं नहीं छापी जो बहुत बिके । पत्रों का संग्रह भी न छापने को थे ? और जो इच्छा हो । मैं आपके अनुग्रहों का ऋणी हूँ। -परिश्चन्द्र क पत्र साहित्य १०७७