पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११३

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BHOGPAK APER आस पास ही बसन मनोरथ निज-जन पूरे। | अन्याश्रय लषि सावधान आये निज घर कह तिन में यह प्रेम-सुरंग रंगिरही धरे अति भक्ति हिय। करि सेवा निज सेञ्च ललन की तजी देवलह । यानी एक महाबहि सेवत नित नवनील-प्रिय।१०२ निंदा करि कीरति चौधरी मार पाइपद दियो । जिवदास भजन-रत जाम चहुँ श्री साडिले सुजान के। प्रभुदास भाट सिंहनाद के तीर्थ प्रचोदिक निदियो ।१०८ उभव ननय पुरुषोत्तमदास छवीलदास चिन । पुरुषोत्तम दास यु आगरे राजघाट पे रहत हे। मबा कीनी कक दिषस इन पे संर्तात विन।। श्री गोस्वामी एक समै आये तिनके घर । तिनके मामा कृष्णदास पनि सेवा कीनी। ! भई रसोई भोग समयौँ किए अनौसर । लिन पीछे तिन मित्र सोई सेवा सिर लीनी। पनि सादर निव सेव्य ठाकरे के भाजन में। तहुँ डेढ़ वरस रहि पुगि गए मंदिर निज प्रिय प्रान के। | आरोगाये जस आरोगे नंद-भवन में। वियाम भजन-रत जाम चहै श्री लाडिले सुजान के ।१०३ | श्री ठाकर ही की सेज पै पौढ़ाए सेवत रहे। श्री ललित त्रिभगी लाल की सेवा देवा सिर रही।। पुरुषोत्तमदास बुआगरे राजघाट पे रहत है ।१०९ देवा पत्नी सहित सरस सेवा चित दीन्ही । । घर तिपुरदास को सेरगढ़ हुते सुकायध वाता के । तिनहीं लौ तह रहे ठाकुरी भावहि चीनही । श्री हरिके रंग रंगे प्रभुन-पद-पदुम प्रीति अति । रहे तनय तिन चारि लई नहि तिनते सेवा । सही कर दइ जिनहिं तुरुक बहु मार मंद मति । भाव-वस्य भगवान जासु कर्मादि कलेवा । विन चरनोदक महाप्रसाद लिए न पियत जल । अंतरध्यान भे सु भौन तें निव इच्छा विचरन मही। | इन कह खेद जानि अकरह परत न छन कल । श्री ललित विभगी साल की सेवा देया सिर रही ।१०४ | गज्जी की फरगुल इनहि की हरे सीत श्रीनाथ के । रसिकाई दिनकरदास की कथा सुननि में शकथ ही। | घर तिपुरदास को सेरगढ़ हुने मुकायय जात के ।११० तरतहि धावत सुनत महाप्रभु-कथा कहत अव । पूरनमल छत्री प्रभुन के कृपापात्र अति ही रहे। काचिहि लीटी पाइ लेत सुधि रहति न तन तब । जानि कही प्रभ अति अनुनित तम करी कथा-हित । आयसु लहि श्रीनाथ-हेतु मंदिर समराए । सुभ मुहूर्त में जहाँ श्रीनाथहि प्रभु पधराए । भोग लगाइ प्रसाद पाइ अब तें ऐहो नित । येई श्रोता अब आजु ते श्री मुख यह आप कही। अति सुगंध अरगजा समर्पे जिन अपने कर । रसिकाई दिनकरदास की कथा सुननि में अकथ ही।१०५ | दिय ओढ़ाय आपने उपरना गोस्वामी बर । गइल परसादी नाथ के बरस बरस पावत रहे । मुकन्ददास कायस्थ हे विन मुकंद-सागर किये। पूरनमल छत्री प्रभुन के कृपापात्र अति ही रहे ।१११ श्री आचारव महाप्रभुन-पद प्रीति जिनहिं अति । याही तें प्रभु तिलक सुबोधनि मै तिन की मति । यादवेद्रदास कुम्हार श्री गोस्वामी-आयसु-निरत । निज मुख श्री भागवत कहें नहिं सुनै सु अपर मुष । श्री गोस्वामी संग कहूँ परदेस चलत जब । कर्म सुभासुभ जनित पडितनि सुलभ न वह सुष । एक दिवस की सामग्री के भार बहत सब । बरनाश्रम धर्मनि बंचकनि सहजहि में इन ठगि लिये। सेवा करहिं रसोई निसि में पहरा देते । मुकुंददास कायस्थ हे जिन मुकुंद-सागर किये ।१०६ मास दिवस के काम एक ही दिन करि लेते । छत्री प्रभुदास जलोटिया टका मुक्ति दै दधि लई।। जो कूप खोदि निजकर-कमल खारो जल मीठो करत । वह मारग अति विषम कृष्ण चइतन्य सुनत हो। यादवेद्रदास कुम्हार श्री गोस्वामी-आयसु-निरत ।११२ मुर्शित ये हवे जाहिं सु जिन कह सुलभ सुषद ही। सुदापन प्रति बच्छ पत्र ब्रज प्रगट दिखाये। गोसाईदास सारस्वत देह तजी बदरी बनें । अवगाहन नहि दीन प्रभुन परसाद पवाये। ठाकुर-सेवा महाप्रभुन इन सिर पधराए । सेवा श्री मोहन-मदन की जिनहि सावधानी दई। सेये नीकी भांति ठाकुरहि अतिहि रिझाए । त्रा प्रभुदास जलोटिया टका मुक्तिदायलाई १०ाकर आपसु पाइ बदरिकासहि पधारे।। प्रभास भाट सिंहनंद के तीर्थ प्रथोदिक निदियो । ठाकर सेवा काहु भागवत माथे धारे । संक्त नीकी भाँति ठाकराहि बुद्ध भये अति । जिन यह इनसों निरधार किय ठाकुर देव न इहि सने । तीर्थ प्रचोदिक पहुंचाये सब अन्याश्रित मति । गोसाईदास सारस्वत देह तली बदरी बने ।११/ उतराहद भक्तमाल ७३