पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११३१

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पत्रकार कर्म सम्पादकीय टिप्पणी, विज्ञापन/ खुचनाएँ और अन्य सम्पादकीय १० जनवरी सन् १८७२ के साप्ताहिक 'कविवचन सुधा' में प्रकाशित हिन्दी कविता पर लम्बा सम्पादकीय लेख। -सं० (हिन्दी कविता) ऐसा निश्चय है कि हिन्दी भाषा प्राकृत भाषा से बिगड़ती हुई बनी होगी परन्तु इसमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं केवल हिन्दी कविता में बहुत से प्राकृत शब्द मिलते हैं इससे निश्चय हो सकता है जैसा किति कान्ह गव्य इत्यादि । सबसे पुरानी हिन्दी की कविता चन्द कवि की है जो महाराज पृथवीराज का कवि था । इसकी कविता के पहिले की कोई कविता नहीं मिलती । एक कोई बैताल कवि हुआ है और उसने बहुत सी छप्पय बनाई । और उसकी भाषा भी पुरानी है पर यह निश्चय नहीं होता कि वह ठीक किस समय में हुआ था । चन्द की कविता प्राकृत भाषा की सी है । जैसा गज खम्म छुटत उभदद मदं । मनो गाजत गज्ज अषाढ़ भद इत्यादि" यह कविता बहुत मधुर नहीं है इसके पीछे फिर कौन कौन कवि हुए यह निश्चय नहीं परन्तु महम्मद मालिक जाइसी ने जो पदमावत बनाई है वह कविता उस काल के पीछे थी कविता कहीं जा सकती है । यह कविता मीठी और सीधी बनी है और इसके पीछे कबीर और नान्हक की कविता है । इस काल तक कविता की कोई बंधी भाषा नहीं थी अब लोग सीधी बोली में कविता करते थे । राजाधिराज अकबर का समय हिन्दी कविता की ठीकवृद्धि का समय था और नरहारि इत्यादि कवि उसी समय में हुए । नरहारि कान्यकुब्ज ब्राहमण थे और उनके बंश के लोग अब तक कवि है । अकबर ने नरहरि को महापात्र का पद दिया था और उस समय में हिन्दी कविता में ब्रजभाषा मिल गयी थी परन्तु ब्रजभाषा में कविता करने का नियम सूरदास जी ने बांधा है जो इसी अकबर के समय हुए थे । सूरदास जी का जीवन वृत्त हम लोग विगत वर्ष के किसी विन्दु में लिख चुके हैं । ये भाषा के कवियों के मुकुट मणि और महाराज थे प्रायशः नये कवियों की कविता में वही उपमा और मिलते है जो सूरदास गान कर गये हैं । हिन्दी की बोलचाल और प्रबन्ध के पहिले लिखने वाले यही थे । यों तो इनके कुछ पूर्व से भी वृन्दावन में ब्रजभाषा में कविता बनती थी पर प्रसिद्ध इन्हीं के समय में हुए और इनके समकालीन बहुत से कवि हुए । सूरदास जी ने तो सवाभावोक्ति बहुत कहीं है पर और भाषा के कवियों का ध्यान इधर न रहा और मुसलमानी राज्य के ठीक समय में होने के कारण उन लोगों ने बड़ी लम्बी लम्बी उपमा और अक्षर मैत्री और बड़े-बड़े शब्द कविता में भर दिये और हिन्दी कविता के तादृश आदर न पाने का यहीं कारण हुआ । अकबर के समय से औरंजेब के समय तक बहुत से कवि हुए और वैष्णवों में कविता की चरचा की विशेषता से ब्रजभाषा ही कविता की मुख्य भाषा रही और काव्यादर्श इत्यादि ग्रंथों का मत लेकर हिन्दी कविता के शास्त्र भी बने परन्तु जैसा कवियों ने अलकार और नायका भेद में जी लगाया वैसा व्याकरण की ओर न झुके और यही कारण है कि मनमानी भाषा और मनमाने शब्द कविता में मिल गये । इसी समय के अन्त भाग में तुलसीदास जी हुए पर इनने ब्रजभाषा का नियम अपनी भाषा में न रक्खा । उस काल के राजा लोगों का भी हिन्दी कविता का व्यसन बढ़ा और कवियों को नौकर रखने लगे और जयपुर और बुंदेलखंड में बहुत से कवि रहने लगे और पत्रकार कर्म १०८७