पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

Yeaf लाख मनुष्यों का काम इन यंत्रों के द्वारा होता है ५ मनुष्य तो काम करते करते थक जाते हैं पर ये यंत्र कभी नहीं थकते और मनुष्यों के समान चार आना आठ आना रोज नहीं देना पड़ता केवल इनमें अग्नि प्रदीप करने से चलने लगते है परदेश के कला कौशल्य ने इस देश पर चढ़ाई किया ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।" एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आगे चलकर हरिश्चंद्र ने स्वदेशी का नारा लगाया। नारा ही नही, स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार की शपथ लेने के लिए 'कविवचन सुधा' २३.३.१८७४ के अंक में छपा। सं० "हम लोग सर्वान्तर्यामी सब स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिनेंगे और जो कपड़ा कि पहले से मोल ले चुके हैं और आज की मिली तक हमारे पास है उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावैगे पर नवीन मोल लेकर किसी भांति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे । हिन्दुस्तान ही का बना कपड़ा स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चंद्र को अपनी मनीषा प्रकाशित करेंगे और सब देशी हितेषी इस उपाय के वृद्धि में अवश्य उद्योग करेंगे।" 'कविवचन सुधा" (८.२.१८७४) "कुछ काल पहले अंग्रेज लोग जब हिन्दुस्तान के विषय में व्याख्यान देते थे तब यही प्रकट करते थे कि हम केवल इस देश के लाभ अर्थ राज्य करते हैं यही चिल्ला चिल्ला कर सर्वदा कहा करते कि हम सदैव हिन्दुस्तान की बुद्धि के निमित्त विचार करते हैं कि हम लोग इस देश की वृद्धि करेंगे और यहां के निवासियों को विद्यामृत पिलावेंगे और राज्य का प्रबन्ध किस भांति करना यह ज्ञान जब प्रजा को स्वतः हो जायेगा तब हम लोग हिन्दुस्तान का सब राज्य प्रबन्ध यहां के निवासियों को स्वाधीन कर देंगे और अंत को सब राम राम कह कर वहाज पर पैर रख स्वदेश गमन करेंगे । यह वार्ता हम लोग अपनी गड़ी हुई नहीं कहते । पर इन्हीं अंग्रेजों की और मुख्य करके पाद्रियों के जो व्याख्यान प्रसिद्ध हुए हैं उनसे स्पष्ट प्रगट होता है यह प्रकार पाठकजनों के देखने में निस्संदेह आया ही होगा इसमें संदेह नहीं।" (२) अंग्रेजों ने हम लोगों को विद्यामृत पिलाया और उस्से हमारे देश बान्धवो को बहुत लाभ हुए इसे हम लोग अमान्य नहीं करते परन्तु उन्हीं के कहने के अनुसार हिन्दुस्तान की वृद्धि का समय आने वाला हो सो तो एक तरफ रहा पर प्रतिदिन मूर्खता, दुर्भिक्षता और दैन्य प्राप्त होता जाता है । अंगरेजों ने उनको अपने विद्या की रुचि लगा कर राजनीति में उनके चित्त को आकर्षण किया और सच्ची विद्या उन्हें न दिया और यही कारण है कि हम लोग इनकी माया से मोहित हो गये और हम लोगों को अपनी हानि दृष्ट न पड़ी ।" १६ फरवरी १८७४ के'कविवचन सुधा' में: "बंगाल में दुर्भिक्ष क्या है केवल अनीति के बीच का फल है क्या कारण है कि दिन दिन महंगायी बढ़ती जाती है और अन्न गत वर्ष में १२ सेर का विकता था सो इस वर्ष में ८ सेर बिकने लगा विचार करों कि बीस वर्ष बाद के पूर्व अन्न ४० सेर का बिकता था अब उसका पंचमांश क्यों हो गया ?" ७ मार्च १८७४ 'कविवचन सुधा "सरकारी पक्ष का कहना है कि हिन्दुस्तान में पहले सब लोग लड़ते भिड़ते थे और आपस में गमनागमन न हो सकता था । यह सब सरकार की कृपा से हुआ । हिन्दुस्तानियों का कहना है कि उद्योग और व्यापार बाकी नहीं । रेल आदि से मी द्रव्य के बढ़ने की आशा नहीं है । रेलवे कंपनी वाले जो द्रव्य व्यय किया है उसका व्याज सरकार को देना पड़ता है और उसे लेने वाले बहुधा विलायत के लोग हैं । कुल मिलाकर २६ करोड़ रुपया बाहर जाता है। पत्रकार कर्म १०९१