पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५

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-aaye जननी श्लोकोत्तम दास को नाथ सेवकनि मिलि कहयौ । । सोइ जात जब वास बिसम्भर भरत हुंकारी ।। कर रसोई प्रीति समेत परोसि लिवायें । भरत आप तब श्री हरिजू निज जन-हितकारी। पाही से श्रीनाथ सेवकनि को अति भावें । कहि कथा पूछि अनुजहि मुदित जानि ठाकुरहि ठगि गये।। श्री गोस्वामी रोझि रहे लषि शुद्ध प्रेम पन । दोऊ भाई छबी हुते महाप्रभुन-रस रंग रये ।१३० रस वात्सल्य अलौकिक जानि सिहाहि मनहि मन । मन शुद्धाद्वैत सरूप मति कृष्णभक्ति तजि तन लहयो । इक निपट अकिंचन ब्राह्मनी जिन हरि कह निज कर लहे। जननी श्लोकोत्तमदास को नाथ माटी के सब पात्र सदन सांकरो सुहायो । सेवकनि मिलि कहयो ।१२५ वृद्धि भई निज ठाकुर रत अपरस विसरायो । लषि वैष्णव श्री महाप्रभुन पधरावे तेहि घर । ईश्वर द्रवे सांचोर के मुखिया में श्रीनाथ के। प्रीति भाव लखि मे प्रसन्न अति दी जिय प्रभुवर । सेवकन को मरजाद सवि इन प्रभु-पद दृढ़ करि गहे । श्लोकोत्तम जन नाम धन्य येऊ पुनि पाये। नाथ सेषकनि अधिक धीय दै मातु कहाचे । इक निपट अकिंचन आरमनी जिन अबिरल भक्ति विशुद्ध गुसाई सो इन लीन्हीं । हरि कह निज कर लहे ॥१३१ महाप्रभुन पच प्रीति रीति इन दृढ करि चीन्ही । छवानी इक हरि-नेह-रत वत्सलता की खानि ही। पाई सेवा श्रीअंग की सरन अनायनि नाथ के । दिन दस के लडुआ इक ही दिन करिके राखे । ईश्वर दूचे सांचोर के मुखिया में श्रीनाथ के१२६ सो प्रभु आप उठाइ अंक ले तुरतहि चाखे । यह मरजादा भंग देखि रोई भय होई। वासुदेव जन जन्मस्थली काजी मर-मरदन किये। आरति के हित कियो कल्यो तब प्रभु दुख जोई। श्री गोपीपति मुहर गुसाई 4 पहुंचाई। तय नित सामग्री नय करति ऐसी चतुर सुजानि ही। करी दंडवत लाइ पहुंच पत्रिका सुहाई।। छत्रानी इक हरि-नेह-रत वत्सलता की खानि ही।१३२ मथुरा ते आगरे गए आये जुग जामे ।। समराई हठ करि प्रभुन को निज कर भोग लगाइयो । सीहनंद वैष्णवनि उछाहनि में अभिरामै । | सास गोरजा महाप्रभुन के दरस पधारी । मन डेढ़ नित्त ये खात है दाल गुरज इक कर लिये। | | तब यह हरि सनमुख लाई रच रुचि के भारी । वासुदेव जन जन्मस्थली काजी मय-मरदन किये ।१२७ | जब न अरोगे तब इन कछु आपहु नहि खायो । बाबा बेनू के अनुजवर कृष्णदास घघरी रहे। | ऐसे ही हठ करि जल बिनु दिन कछुक बितायो । श्री केसव के कीर्तनिया ये अरु जादव जन । आपुप्रगट व प्रम सा जाल ले यादि पियाइयो । कृष्णदास तह गिरिवरघर ध्यावत त्यागे तन ।। समराई हठ करि प्रभुन को नाथ दरस करि गिरि नीचे बेनु तन त्यागे । निज कर भोग लगाइयो।१३३ वादवदासी सर रचि नाथ पूजा के आगे। दासी कृष्ण मति सचि भरी गुरु-सेवा में अति निरत । कहि नाथ देह तजि आगिधरि वायु बहे तिन तन दहे। जब गोस्वामी कह चतुर्थ पालक प्रगटाए। बावा अनू के अनुजवर कृष्णदास घघरी रहे १२८ तब श्री बल्लभ गोस्वामी बर नाम पराए । कृष्ण भाख्यो इनकों गोकुलनाथ पुकारो । जगतानंद दुज सारस्वत धानेसर निवसत रहे। | तासों जग में यह नाम सब लेत हंकारो । एक श्लोक के अर्थ प्रभुन त्रै जाम बिताय। गोस्वामी ४ जा कानि सो यह नाम भावे तुरत । कही मास दैतीनि बीतिहै सुनि सिर नाये । दासी कृष्णा मति रुचि भरी देहु नाम इन विनय करी तय प्रभु अपनाये । गुस-सेवा में अति निरत ।१३४ पुनि महाप्रभुन को गित निव घर पधराये। श्री बला मिन उदार अति बिनु रितुह पाशक दियो । तह नित सेवा विधि तिनहिं कहि साबधान सेवन कहे। | जिजमानहि बरबस एक ही मंद सुनाई। जगतानंद दुज सारस्थत थानेसर निवसत रह ।१२५ करम लिखी उबटन पतनी गोद भराई । दोऊ भाई छत्रो हुते महाप्रभु-रस रंग रये। छत्री को इन सकल मनोरथ पूरन कीनो। ददास बड़े भाई नित बैठि अनज सँग । करुना चित मैं धारि दान बालक को दीनो। महाप्रभुन के चरित कृष्ण गुन कहत पुलकि अंग ।) हरि-गुरु-बल जो मुख सों उतराहर्द भक्तमाल ७५