पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५५

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अनर्थ! अनर्थ!! अनर्थ!!! सबसे अधिक अनर्थ "दीन जानि सब दीन्ह एक दुरायो दुसह दुख। सो दुख हम कहँ दीन्ह कछुह न राख्यो बीरबर।। आज हमको इसके प्रकाशित करने में अत्यन्त शोक होता है और कलेजा मुंह को आता है कि हम लोगों के प्रमास्पद भारत के सच्चे हितैषी, और आर्यों के शुभचिन्तक श्रीमान् भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी कल मइ.गल की अमइ.गल रात्रि में ९ बज के ४५ मिनट पर इस अनित्य संसार से विरक्त हो और हम लोगों को छोड़ कर परम पद को प्राप्त हुए । उनकी इस अकाल मृत्यु से जो असीम दुःख हुआ उसे हम किसी भांति से प्रकट नहीं कर सकते क्योंकि यह वह दुसह दुःख है कि जिनके वर्णन करने से हमारी छाती तो फटती ही है वरन्च लेखनी का हृदय भी विदीर्ण होता जाता है और वह सहस्रधारा से अश्रुपात करती है। हा ! जिस प्राण प्यारे हरिश्चन्द्र के साथ सदा विहार करते थे और जिसके चन्द्रमुख दर्शन मात्र से हृदय कुमुद विकशित होता था उसे आज हम लोग देखने के लिये भी तरसते हैं । जिसके भरोसे पर हम लोग निश्चिन्त बैठे रहते थे और पूरा विश्वास रखते थे वही आज हमको धोखा दे गया । हा ! जिस हरिश्चन्द्र को हम अपना समझते थे उसको हमारी सुध तक न रही । हरिश्चन्द्र तुम तो बड़े कोमल स्वभाव के थे परन्तु इस समय तुम इतने कठोर क्यो हो गये ? तुमको तो राह चलते भी किसी का रोना अच्छा नहीं लगता था सो अब सारे भारतवर्ष का रोना कैसे सह सकोगे । प्यारे ! कहो तो सही, दया जो सदा छाया सी तुम्हारे साथ रही सो इस समय कहाँ गई । प्रेम जो तुम्हारा एक मात्र व्रत था उसे इस वेला कहाँ रख छोड़ा है जो तुम्हारे सच्चे प्रेमी बिलला रहे हैं हे देशाभिमानी हरिश्चन्द्र ! तुम्हारा देशाभिमान किधर गया जो तुम अपने देश की पूरी उन्नति किये बिना इसे अनाथ छोड़ कर चल दिये । तुम्हारा हिन्दी का आग्रह क्या हुआ, अभी तो वह दिन भी नहीं आये थे जो हिन्दी का भली भाँति प्रचार हो गया होता, फिर आप को इतनी जल्दी क्या थी जो इसका हाथ ऐसी अधूरी अवस्था में छोड़ा हे परमेश्वर, तूने आज क्या किया, तेरे यहाँ कमी क्या थी जो तूने हमारी महानिधि छीन ली । जो कहो कि वह तुम्हारे भक्त थे तो क्या न्याय यही है कि अपने सुख के लिये भक्त के भक्तों को दुख दो । अरे मौत निगोड़ी, तुझे मौत भी न आई जो मेरे प्यारे का प्राण छोड़ती । अरे दुर्दैव क्या तेरा पराक्रम यही था जो हतभाग्य भारत को यह दिन दिखलाया । हाय ! आज हमारे भारतवर्ष का सौभाग्यसूर्य अस्त हो गया, काशी का मानस्तथ टूट गया और हिन्दुओं का बन जाता रहा । यह एक ऐसा आकस्मिक वज्रपात हुआ कि जिस के आघात से सब का हृदय चूर्ण हो गया । हा! अब ऐसा कौन है जो अपने बन्धुओं को अपने देश की भलाई करने की राह बतलाबैगा और तन मन धन से उनमें सुमति और अच्छे उपदेशों के फैलाने का यत्न करैगा । अभागिनी हिन्दी के भण्डार को अपने उत्तमोत्तम लेख द्वारा कौन पुष्ट करेगा और साधारण लोगों में विद्या की रुचि बढ़ाने के लिये नाना प्रकार के सामयिक लेख लिख कर सब का उत्साह कौन बढ़ावेगा । अपनी सुधामयी वाणी से हम लोगों की आवेलि कोन बढ़ावैगा और हा ! काव्यामृत पान करा के हमारी आत्मा को कौन तुष्ट करेगा । मेरे प्राणप्यारे ! अवसर पड़ने पर हमारे आर्यधर्म की रक्षा करने के लिये कौन आगे होगा और दीनोद्वार की श्रद्धा किसको होगी । यो तो आर्य जाति को अब कोई संकष्ट उपस्थित होता था तो वे तुम्हारे समीप दौड़े जाते थे पर अब किसकी शरण जायेंगे । शोक का विषय है कि तुमने इनमें से एक पर भी ध्यान न दिया और हम लोगों को निरवलम्ब छोड़ गये । प्रियतम हरिश्चन्द्र ! आज तुम्हारे न रहने ही से काशी में उदासी छा रही है और सब लोगों का अन्तःकरण परम दुःखित हो रहा है । तुम को वह मोहन मंत्र याद था कि जिस से सारे संसार को अपने वश में कर लिया था । पर हा ! आज एक तुम्हारे चले जाने से सारा भारतवर्ष ही नहीं, किन्तु यूरोप अमेरिका इत्यादि के लोग भी शोकग्रस्त होंगे यद्यपि तुम कहने को इस संसार में नहीं हो, परन्तु विविध ११०९