पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५६

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तुम्हारी वह अक्षय कीति है कि जो इस संसार में उस समय तक बनी रहेगी कि जबलों हिन्दी भाषा और नागरी अक्षरों का लोप होगा । प्यारे ! तुम तो वहाँ भी ऐसे ही आदर को प्राप्त होगे पर बिला मौत हम लोग मारे गये । अस्तु परमेश्वर की जो इच्छा आप की आत्मा को सुख तथा अखण्ड स्वर्गनाम हो, पर देखना अपने दीन मित्र तथा गरीब भारतवर्ष को भूलना मत । अब सिवा इसके रह क्या गया है कि हम लोग उनके उपकारों को याद करके आंसू बहावें, इसलिये यहाँ पर आज थोड़ा सा उनका चरित प्रकाशित करता हूँ, चित्त स्वस्थ होने पर पूरा जीवनचरित छापूँगा क्योंकि वह स्वयं भविष्यवाणी कर गये हैं कि कहेंगे सबही नैन नीर भरि २ पाखें प्यारे हरिचन्द की कहानी रह जायंगी। मानमन्दिर, प्यारे के वियोग से नितान्त दु:खी ७.१.८५ व्यास रामशंकर शर्मा माघ पूर्णिमा सं. १९४१ को भारतेन्दु के निधन पर हुई शोक सभा का निमंत्रण -सं. कला लयो विष्णुपदानयश्च सुधासगाप्लावितदिग्विभाग: श्रीमान् 'हरिश्चन्द्र' इति प्रसिद्धि, यो भारते मूत्किल भारतेन्दुः ।।१।। तोयसख्येन महानुभावाः, यशः प्रकाशैः परिपूरिताशाः । दयादृशा सूरिवरा भवन्तः पुनन्तु दत्वा ननु दर्शन नः ।।२।। आपका सेवक, गोकुलचन्द संक्षिप्त जीवनी श्रीमान कविचूड़ामणि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने सन् १८५० ई0 के सितम्बर मास की ९वीं तारीख को जन्मग्रहण किया था । जब वह ५ वर्ष के थे तो उनकी पूज्य माता जी वने ९ वर्ष के हुए तो महामान्य पिता जी का स्वर्गवास हुआ, जिससे उनको माता पिता का सुख बहुत ही कम देखने में आया, उनकी शिक्षा बालकपन से दी गई थी और उन्होंने कई वर्ष तो कालेज में अंग्रेजी तथा हिन्दी पढ़ी थी संस्कृत, फारसी, बंगला, महाराष्ट्री इत्यादि अनेक भाषाओं में बाबू साहिब ने घरपर निज परिश्रम किया था । इस समय बाबू साहिब तैलड्.ग तथा तामील भाषा को छोड़ कर भारत की सब देश भाषा के पण्डित थे । बाबू साहिब की विद्वत्ता, बहुजता, मीतित्रता, पाण्डित्य, तथा चमत्कारिणी बुद्धि का हाल सब पर विदित है कहने की कोई आवश्यकता नहीं । इनकी बुद्धि का चमत्कार देख कर लोगों को आश्चर्य होता था कि इतनी अल्प अवस्था में यह सर्वज्ञता । कविता की रुचि बाबू साहिब को बाल्यावस्था ही से थी, उनकी उस समय की कविता पढ़ने से कि जब वह बहुत छोटे थे बड़ा आश्चर्य होता है और इस समय की तो कहना ही क्या है मूर्तिमान आशुकवि कालिदास थे जैसी कविता इनकी सरस और प्रिय होती थी वैसी आज दिन किसी की नहीं होती । कविता सब भाषा की करते थे, पर भाषा की कविता में अद्वितीय थे । उनके जीवन का बहुमूल्य समय सदा लिखने पढ़ने में जाता था । कोई काल ऐसा नहीं था कि उनके पास कलम, दावात और कागज न रहता रहा हो । १६ वर्ष की अवस्था में कविवचन सुधा पत्र निकाला था जो आज तक चला जाता है । इसके उपरान्त तो क्रमशः अनेक पत्र पत्रिकाएँ और सैकड़ों पुस्तक लिख डाले जो युग युगान्तर तक संसार में उनका नाम भारतन्दु समग्र १९९०