पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५७

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जैसा का तैसा बनाये रखेंगे । २० वर्ष की अवस्था अर्थात सन् ७० में बाबू साहिब आनरेरी मैजिस्ट्रेट नियुक्त हुए और सन् ७४ तक रहे वो उसी के लगभग ६ वर्ष लों म्यूनिस्पल कमिश्नर भी थे । साधारण लोगों में विद्या फैलाने के लिये सन् १८६७ ई० में जब कि बाबू साहिब की अवस्था केवल १७ वर्ष की थी चौखम्मा स्कूल जो अबतक उनकी कीर्ति की ध्वजा है, स्थापित किया, जिनके छात्र आज दिन एम. ए. बी. ए. तथा बड़ी बड़ी तनखाह के नौकर हैं । लोगों के संस्कार सुधारने तथा हिन्दी की उन्नति के लिये हिन्दी डिबेटिंग क्लब, अनाथरक्षिणी तदीय समाज, काव्य समाज इत्यादि सभाएं संस्थातिप की और उनके सभापति रहे, भारतवर्षके प्रायः सब प्रतिष्ठित समाज तथा सभाओं में से किसी के प्रेसीडेन्ट, सेक्रिटरी और किसी के मेम्बर रहे लोगों के उपकारार्थ अनेक बार देश देशान्तरों में व्याख्यान दिये । उनकी वक्तृता सरस और सारग्राहिणी होती थी । उनके लेख तथा वक्तृत्व में देशा गौरव झलकता था । विद्या का सम्मान जैसा साहिब करते थे वैसा करना आजकल कठिन है, ऐसा कोई भी विद्वान् न होगा जिसने इनसे आदर सत्कार न पाया हो । यहां के पण्डितो ने जो अपना अपना हस्ताक्षर करके बाबू साहिब को प्रशंसापत्र दिया था उसमें उन लोगों ने स्पष्ट लिखा है कि जिमि सुभाच दिन रेन के कारन नित हरिचन्द ।। सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचन्द । जिमि सुभाव दिन रैन के कारन नित हरिचन्द ।। बाबू साहिब दानियों में कर्ण थे, इतना ही कहना बहुत है । उनसे हजारों मनुष्य का कल्याण होता रहा । विद्योन्नति के लिये भी उन्होंने बहुत व्यय किया । ५०० रु० तो उन्होने पं0 परमानन्द जी की शतसई की संस्कृत टीका का दिया था और इसी प्रकार से कालिज, वो स्कूलों में उचित पारितोषिक बांटे हैं । जब जब बंगाल, बम्बई, वो मदरास में स्त्रियां परिक्षोत्तीर्ण हुई हैं तब तब बाबू साहिब ने उनके उत्साह बढ़ाने के लिए बनारसी साड़ियां भेजी थीं । जिनमें से कई एक की श्रीमती लेडी रिपन ने प्रसन्नता पूर्वक अपने हाथ से बाटा था । बाबू साहिब ने देशोपकार के लिये नेशनल फंड होमियोपैणिक डिस्पेंसरी, गुजरात वो जौनपुर रिलीफ फण्ड, सेलचे होम, प्रिंस आफ वेल्स हास्पिटल और लैब्ररी इत्यादि की सहायता में समय समय पर चन्दा दिये हैं। गरीब दुखियों की बराबर सहायता करते रहे । गुणग्राहक भी एक ही थे, गुणियों के गुण से प्रसन्न होकर उनको यथेष्ट द्रव्य देते थे, तात्पर्य यह कि जहां तक बना दिया देने से हाथ नहीं रोका । देशहितैषियों में पहिले इन्हीं के नाम पर अंगुली पड़ती है क्योंकि यह वह हितेषी थे कि जिन्होने अपने देशगौरव के स्थापित रखने के लिये अपना धन, मान, प्रतिष्ठा एक ओर रख दी थी और सदा उसके सुधरने का उपाय सोचते रहे । उनको अपने देशवासियों पर कितनी प्रीति थी यह बात उनके भारतजननी, वो भारतदुर्दशा इत्यादि ग्रन्थों के पढ़ने ही से विदित हो सकती है । उनके लेखों से उनकी हितैषिता और देश का सच्चा प्रेम झलकता था। यद्यपि बहुत लोगों ने उनको गवर्मेन्ट का डिसेलायल (अशुभचिन्तक) मान रक्खा था. पर यह उनका भ्रम था. हम मुक्तकण्ठ स कह सकते हैं कि वह परम राजभक्त थे । यदि ऐसा न होता तो उन्हें क्या पड़ा थी कि जब प्रिंस आफ वेल्स आये थे तो वह बड़ा उत्सव और अनेक भाषा के छन्दों में बना कर स्वागत ग्रन्थ (मानसोपायन) उनके अर्पण करते । डयूक आव एडिन्बरा जिस समय यहां पधारे थे बाबू साहिब ने उनके साथ उस समय वह राजभक्ति प्रकट की जिससे डयूक उन पर ऐसे प्रसन्न हुए कि जब तक काशी में रहे उन पर विशेष स्नेह रक्खा । सुमनोन्जलि उनके अर्पण किया था जिसके प्रति अक्षर से अनुराग टपकता है। महाराणी की प्रशंसा में मनोनुकूल माला बनाई । मिस्र युद्ध के विजय पर प्रकाश्य सभा की दो विजयिनीविजय बैजजयंती बनाकर पूर्ण अनुराग सहित भक्ति प्रकाशित की । महाराणी के बचने पर सन् ८२ में चौकाघाट के बगीचे में भारी उत्सव किया था और महाराणी के जन्म दिवस तथा राजराजेश्वरी की उपाधि लेने के दिन प्रायः बाबू साहिब उत्सव करते रहे । डयूक आव अलबनी की अकाल मृत्यु पर सभा कर के महाशोक किया था । जब जब देशहितैषी लार्ड रिपन आये उन को स्वागत कविता देकर आनन्दित हुए । सन् ७२ में म्यो मेमोरियल सिरीज में १५०० रु. दिये । यह सब लायल्टी नहीं तो क्या है ? विविध ११११