पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५८

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है। वह प्राय: कहते थे कि अभी तक मेरे पास पूर्ववत बहुत धन होता तो में चार काम करता । हां । जिस समय हमको बाबू साहिब की यह करुणा की बात याद आ जाती है तो प्राण कठमआता बाबू साहिब भारतवर्ष के एड्यूकेशन कमीशन (विद्या सभा) के सभ्य तो हुए ही थे वे परन्तु इन का गुण यह था कि विलायत में जो नेशनल एंथम (जातीय गीत) के भारत की सब भाषाओं में अनुवाद करने के लिए महारानी की ओर से एक कमेटी हुई थी उसके मेम्बर भी थे, और उनके सेक्रेटरी ने जो पत्र लिखा था उसमें उसने बाबू साहिब की प्रशंसा लिख कर स्पष्ट लिखा था कि मुझको विश्वास है कि आप की कविता सबसे उत्तम होगी और अन्त में ऐसा ही हुआ क्यों नहीं जब की भारती बिह्वा पर थी । सच पूछिए तो कविता का महत्व उन्हीं के साथ था । बाबू साहिब की विद्वत्ता और बहुज्ञता की प्रशंसा केवल भारतीय पत्रों ने नहीं की वरन्च विलायत के प्रसिद्ध पत्र ओवरलेण्ड, इण्डियन और होम मेल्स इत्यादिक अनेक पत्रों ने की है। उनकी बहुदर्शिता के विषय में एशियाटिक सोसाइटी के प्रधान डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र, एम0. एस. शेरिंग, श्रीमान पण्डितवर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर प्रभृति महाशयों ने अपने अपने ग्रथों में बड़ी प्रशंसा की है। श्रीयुत विद्यासागर जी ने अपने अभिज्ञान शाकुन्तल की भूमिका में बाबू साहिब को परम अमायिक, देशबन्धु धार्मिक, और सुहृद इत्यादि कर के बहुत कुछ लिखा है । बाबू साहिब अजातशत्रु थे इसमें लेश मात्र भी सन्देह नहीं और इनका शील ऐसा अपूर्व था कि साधारणों की क्या कथा भारतवर्ष के प्रधान २ राजे, महाराजे, नवाब और शहजादे इन से मित्रता का बर्ताव बरतते थे और अमेरिका व यूरोप के सहृदय प्रधान लोग भी इन पर पूरा स्नेह रखते थे । हा ! जिस समय ये लोग यह अनर्थकारी घोर सम्वाद सुनेंगे उनको कितना कष्ट होगा। बाबू साहिब को अपने देश के कल्याण का सदा ध्यान रहता था । उन्होंने गोवध उठा देने के लिए दिल्ली दरबार के समय ६०००० हस्ताक्षर करा के लार्ड लिटन के पास भेजा था । हिन्दी के लिये सदा जोर देते गये और अपनी एज्यूकेशन कमीशन की साक्षी में यहां तक जोर दिया कि लोग फड़क उठते हैं। अपने लेख तथा काव्य से लोगों की उन्नति के अखाड़े में आने के लिये सदा यत्नवान रहे । साधारण की ममता इनमें इतनी थी कि माधोराव के घरहरे पर लोहे के छड़ लगवा दिये कि जिससे गिरने का भय छूट गया। इनकमटैक्स के समय जब लाट साहिब यहां आये थे तो दीपदान की वेला दो नावों पर एक पर और दूसरी पर स्वागत स्वागत धन्य प्रभु श्री सर विलियम म्योर । टेक्स छुड़ावहु सबन को विनय करत कर जोर ।। लिखा था इसके उपरान्त टिकस उठ गया लोग कहते हैं कि इसी से उठा । चाहे जो हो इसमें सन्देह नहीं कि वह अन्त तक देश के लिये हाय हाय करते रहे । सन् १८८० ई०. के २० सितम्बर के सारसुधानिधि पत्र में हमने बाबू साहिब को भारतेन्दु की पदवी देने के लिये एक प्रस्ताव छपवाया था और उसके छप जाने पर भारतवर्ष के हिन्दी समाचारपत्रों ने उसपर अपनी सम्मति प्रकट की और सब पत्र के सम्पादक तथा गुणग्राही विद्वान लोगों ने मिल कर उनकी भारतेन्दु की पदवी दी, तबसे वह भारतेन्दु लिखे जाते थे । बाबू साहिब का धर्म वैष्णव था । श्रीवल्लभीय वह धर्म के बड़े पक्के थे, पर आडम्बर से दूर रहते थे । उनके सिद्धान्त में परम धर्म भगवत्प्रेम था । मत वा धर्म विश्वासमूलक मानते थे प्रमाण भूलक नहीं । सत्य, अहिंसा, दया, शील, नम्रता आदि चरित्र को भी धर्म मानते थे, वह सब जगत को ब्रहममय और सत्य मानते थे। बाबू साहिब ने बहुत सा द्रव्य व्यय किया, परन्तु कुछ शोच न था । कदाचित शोच होता भी था तो दो अवसर पर, एक जब किसी निज आश्रित को या किसी शुद्ध सज्जन को बिना द्रव्य कष्ट पाते देखते थे, दूसरे जब कोई छोटे मोटे काम देशोपकारी द्रव्याभाव से रुक जाते थे। (१) श्रीठाकुर जी को बगीचे में पधराकर धूम धाम से षट्नातु का मनोरथ करता (२) विलायत, फरासीस और अमेरिका जाता (३) अपने उद्योग से एक शुद्ध हिन्दी की यूनिवर्सिटी स्थापन करता (हाय रे ! हतभागिनी हिन्दी, अब तेरा इतना ध्यान किसको रहेगा) (४) एक शिल्प कला का पश्चिमोत्तर देश में कालिज करता। भारतेन्दु समग्र १११२