पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सदाऽम्लाना भक्ति प्रकटतर गंधां च सुगुणा ।। छोरी जग साधन सबै भजौ एक नंदलाल । |अगुफत्सन्माला कुरुत हृदयस्था रस-पदा । हरिश्चन्द्रो माली हरिपदगतानां सुमनसां यतोन्येषां स्वस्य प्रणय सुखदात्रीयमतुला ।। प्रेम-प्रलाप [ हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका में १८७७ ई. में प्रकाशित ] प्रेम-प्रलाप दयानिधान कृपानिधि केशव करुण भक्त-भयहारी। नखरा राह राह को नीको । नाथ न्याव तजते ही बनिहै 'हरीचंद' की बारी ।४ इत तो प्रान जात हैं तुम बिनु नाथ तुम अपनी ओर निहारो । तुम न लखत दुख जी को। । हमरी ओर न देखहु प्यारे निज गुन-गनन बिचारो । धावहु बेग नाथ कसना करि जौ लखते अब लौं जन-औगुन अपने गुन बिसराई । करहु मान मत फीको । तौ करते किमि अजामेल से पापी देहु बताई। 'हरीचंद' अठलानि-पने को अब लौं तो कबहुँ नहिं देख्यौ जन के औगुन प्यारे । दियो तुमहिं बिधि टीको ।१ | तौ अब नाथ नई क्यौं ठानत भाखहु बार हमारे । खुटााई पोरहि पोर भरी। तुव गुन छमा दया सों मेरे अघ नहिं बड़े कन्हाई। हमहि छाँड़ि मधुबन में बैठे बरी कर कुबरी । | तासों तारि लेहु नँद-नंदन 'हरीचंद' को धाई ।५ स्वारथ लोभी मुंह-देखे की हमसों प्रीति करी । 'हरीचंद' दूजेन के खै के हा हा हम निदरी ।२ मेरी देखहु नाथ कूचाली । चरित सब निरदय नाथ तुम्हारे । लोक वेद दोउन सों न्यारी हम निज रीति निकाली । देखि दुखी-जन उठि किन धावत जैसो करम करै जग मैं जो सो तैसो फल पावै । लावत कितहि अबारे ।। यह मरजाद मिटावन की नित मेरे मन में आवै । मानी हम सब भाँति पतित अति तुम दयाल तौ प्यारे । न्याय सहज गुन तुमरो जग के सब मतवारे जाने । 'हरीचंद' ऐसिहि करनी ही तो क्यौं अधम उधारे ।३ नाथ ढिठाई लखहु ताहि हम निहचय भूठो जाने । पुन्यहि हेम हथकड़ी समझत तासों नहिं बिस्वासा । प्रभु हो ऐसी तो न बिसारो । दयानिधान नाम की केवल या 'हरिचंदहि' आसा ।। कहत पुकार नाथ तब रूठे कहुँ न निबाह हमारो । जो हम बुरे होइ नहिं चूकत नित ही करत बुराई । लाल यह नई निकाली चाल । तो फिर भले होइ तुम छाँड़त काहे नाथ भलाई । तुम तो ऐसे निठुर रहे नहिं कबहुँ पिया नंदलाल । जो बालक अरुझाइ खेल मैं जननी-सुधि बिसरावै । हमरिहि बारी और भए कह तुम तौ सहज दयाल । पती कहा माता ताहि कुपित हवै ता दिन दूध न प्यावै।। 'हरीचंद' ऐसी नहिं कीजे सरनागत प्रतिपाल ७५ मात पिता गुरु स्वामी राजा जौ न छमा उर लावै ।। अनीतैं कहाँ कहाँ लौं सहिए। तो सिसु सेवक प्रजा न कोउ बिधि जग में निबहन पावै ।। जग-व्यौहारन देखि देखि कै कब लौ यह जिय देहिए । D भारतेन्दु समग्र ८२