पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२३

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तुम कछु ध्यानहि मैं नहि लावत तौ अब कासों कहिए । | सो 'हरिचंद' हमारी बारी कहाँ बिसारी जी तैं ।१५% 'हरीचंद' कहवाइ तुम्हारे मौन कहाँ लो रहिए 10 बड़े को होत बड़ी सब बात । अहो इन झूठन मोहिं भुलाओ। बड़ो क्रोध पुनि बड़ी दयाहू तुम मैं नाथ लखात । कबहुँ जगत के कबहुँ स्वर्ग के स्वादन मोहिं ललचायो। | मोसे दीन हीन पै नहिं तौ काहे कुपित जनात । भले होइ किन लोह-हेम की पाप पुन्य दोउ बेरी। पै 'हरिचंद' दया-रस उमड़े ढरतेहि बनि है तात ।१६ लोभ मूल परमारथ स्वारथ नामहिं मैं कछु फेरी। | हमारे जिय यह सालत बात । इनमैं भूलि कृपानिधि तुमरो चरन-कमल बिसरायो। दयानिधान नाम तुव आछत हम ऐसेहिं रहि जात । तेहि सों भटकत फिर्यो जगत मैं नाहक जनम गवायौ। और अधी तो तरत पाप करि यह श्रुति -कथा सुनात । हाय-हाय करि मोह छाँड़ि के कबहुँ न धीरज धार्यो । हम मैं कौन कसर नंद-नंदन यह कछु नाहिं जनात । या जग जगती जोर अगिनि मैं आयसु-दिन सब जार्यो। जहँ लौ सोचे सुने किये अघ बदि बदि सझा प्रात । करह कृपा करानानिधि केशव जग के जाल छुड़ाई। जग का जाल छुड़ाइ । | तऊ तरन को कारन दूजो 'हरिचंदहि' न लखात ।१७ दीन हीन 'हरिचंद' दास को बेग लेहु अपनाई । अहो हरि अपुने बिरुदहि देखौ । दीन पै काहे लाल खिस्याने । जीवन की करनी करुनानिधि सपनेहु जनि अवरेखौ । अपुनी दिसि देखहु करूनानिधि हम कहा रिसाने । । कहुँ न निबाह हमारो जो तुम मम दोसन कहँ पेखौ । माछर मारे हाथ जलहि इक कहत बात परमाने। अवगुन अमित अपार तुम्हारे गाइ सकत नहिं सेखो। महा तुच्छ 'हरिचंद' हीन सों नाहक भौहहिं ताने 120 करि करुना करुनामय माधव हरहु दुहि लखि भेखो। हमहूँ कबहूँ सुख सो रहते । 'हरिचंद' मम अवगुन तुव गुन दोउन को नहिं लेखौ।१८ छाडि जाल सब निसि-दिन करना करि करुनाकर बेगहि सुध लीजिए। मुख सों केवल कृष्णहि कहते । सहि न सकत जगत-दाव तुरत दया कीजिए । सदा मगन लीला अनुभव मैं हमरे अवगुनहि नाथ सपनेहुँ जिनि देखौ । दुग दोऊ अविचल बहते । अपुनी दिसि प्राननाथ प्यारे अवरेखौ । 'हरीचंद' घनस्याम-बिरह इक हम तो सब भाँति हीन कुटिल कर कामी । जग-दुख तृन सम दहते ।११ करत रहत धन-जन के चरन की गलामी । कहौ किमि छूटै नाथ सुभाव । महा पाप पुष्ट दुष्ट धरमहिं नहिं जानौं । काम क्रोध अभिमान मोह सँग तन को बन्यौ बनाव । साधन नहिं करत एक तुमही सरन मानौं । जैसे हैं तैसे तुव तुमही गति प्यारे । बाई मैं तुव माया सिर पैं औरहु करन कुदाँव । 'हरीचंद' बिनु नाथ कृपा के नाहिंन और उपाव ।१२ कोऊ बिधि राखि लेहु हम तो सबहि हारे । द्रुपद-सुता अजामिल गज की सुधि कीजै । बेदन उलटी सबहि कही। दोन जानि 'हरिचंद' बाहं पकरि लीजै ।१९ स्वर्ग लोभ दै जगहि भुलायो दुनिया मुलि रही । पर प्रेम तुव कहुँ नहिं गायो जो श्रुति-सार सही । जोड़ को खोजि लाल लरिए । हम अबलन पै बिना बात ही रोस नहीं करिए । हरीचंद' इनके फंदन परि तुव छबि जिय न गही ।१३ मधुसूदन हरि कंस-निकंदन रावन-हरन मुरारि । सूरता अपुनी सबै डुलाई । इन नावन की सुरत करो क्यों ठानत हमसों रारि । से महा हीन किंकर सों करि कै नाथ लराई। निबलन कों बधि जस नहिं पैहों साँचो कहत गुपाल । निधान क्षमासागर प्रभु बिदित नाम कहवाई। 'हरीचंद' ब्रज ही मैं इतने कहा खिसाने लाल ।२० अघहि देखि तुम प्यारे कीरति तौन मिटाई। नाध-कृपा सों मेरे अघ वैहैं अधिकाई। पियारे बहु बिधि नाच नचायो । गरिदीन 'हरिचंदहि' मेटत जगत हँसाई ।१४ | यह नहिं जानि परी केहि सुख के बदले इतो दखायो। ब्रज बसि के सब लाज गवाई घर घर चाव चलायो । कुढ़त हम देखि देखि तब रीते। सब मैं इक सी दया न राखत नई निकाली नीते। हम कुल-अधुन कलाकानि कुलटा डगर डगर कहायो अजामेल पापी पै कीनी जौन कृपा करि प्रीते। | हम जानी बदनामी दे हरि करिहैं सब मन-भायो । कबहुँ न नाध-कृपा सोही तौ किन तारि हीन 'हरिचंतन प्रेम-प्रलाप ८३