पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२८

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म WORK जुलफै बनी उलफे जिया की हिलत मोहन मार की। । लक्ष्मीपति बन जलद बरन तन रुद्र तीन कर सुरख मेंहदी पग महावर लपट अतर अपार की । दृग चार बदन पति सुंदर गरुड़ सवारी। जिय बस गई सूरत निवानी दूलहे दिलदार की । कहा कहों री रूपक हरि को चलत कबहूँ बना मेरा सब रस जाने बे। धीमे कहुँ द्रुत गति बृंदावन बनवारी । बना प्रीतहि पहिचानै बे। सुफल कतल कर जुलुफ बनी सिर बना चतुरा रस-बादी बे। भक्त जनन के आड़े आवत बनी-रस-अधर-सवादी 'हरीचंद' यह सृष्टि रची रचि अचिर चरचरी सारी ।५५ रस अधर स्वादी बनी का अंग-अंग रस कस के भरा। लावनी जिय प्रेम माने नेह जाने सकल गुन-आगर खरा । तम बिन व्याकल बिलपत बन-बन बनमाली। बिधि मदन मानी छवि गुमानी नबल नेही नागरा । मति करु विलंब उठि चलु बेगहि सुनु आली । निधि रसिक की 'हरिचंद' त्व ध्यान धारि धरि बसी अघर बजावें । सरबस नंद-बंस उजागरा ।५३ भरि बिरह नाम ले राधा राधा गावै । लावनी तुब आगम सुमिरत छन-छन सेज सजावै। सखी चलो साँवला दलह देखन जावें । मग लखत द्वार पर बार बार उठि धावै। मधुरी मूरत लखि अँखियाँ आज सिरावें । मुरछात देखि तुव बिना सेज कहँ खानी । नीली चोडी चढ़ि बना मेरा बन आया ।। मति कर बिलंब उठि चलु बेगहि सुनु आली । भोले मुख मरवट सुंदर लगत सुहाया । संजोग साज सिंगार न तुव बिनु भावै । जामा चीरा जरकसी चमक मन भाया ।। तन चंद चांदनी औरह बिरह जराबैं । सूहा पटुका कटि कसे भला छबि छाया । जल चंदन माला फूल न कछ सुहावै । हाथों मेंहदी मन हाथों हाथ चुराबैं । तुम आगम बिनु कर मीजि मीजि पछतावै । मधुरी मूरत लखि अँखियाँ आज सिरावें । भई रैन चैन विनु डसन मदन बिख व्याली । सिर मौर रंगीला तुरों की छबि न्यारी।। मति करु बिलंब उठि चलु बेगहि सुनु आली । मोती लर गूथा सेहरा मुख मन-हारी । अपने अपराधन कवहूँ बैठि बिचार । फूलों की बेनी झबिया लटकै प्यारी । तुव मिलन मनोरथ अल-बल बैन उचार। सिर पेंच सीस कानन कुंडल छबि भारी । कबहूँ धुंघराली अलकै नैनन को संगम-सुख सुमिरत हियरो हारै। अति भावें । कबहूँ तेरे गुन कहि कहि धीरज धारै। मधुरी मुरत लखि अँखियाँ आज सिराबैं । भई रात ऊजरी दुख वियोग सौं काली । तैसी दुलहिन सँग। श्रीवृषभानु-कुमारी । मति कर बिलंब उठि चलु बेगहि सुनु आली । मौरी सिर सोहत अंग केसरी सारी । मुख वरवट कर मैं चूरी सरस सँवारी । सुमिरत तोहि दृग भरि रहत श्याम सुखदाई । नकबेसर सोभित चितहि चुरावनवारी । गद्गद् गल बचनहु बोलि न सकत कन्हाई । सिर सेंदुर मुख मैं पान अधिक छबि पावे । पिय दुखित दसा देखी नहिं अब तो जाई । मधुरी मूरत लखि अँखियाँ आज सिराबैं । कर जोरत मिलु अब मोहन सों सखि धाई। सखियन मिलि रस सों नेह गाँठ लै जोरी । 'हरिचंद' मनावत पूरब छाई लाली । रहि वारि-फेरि तन मन धन सब तन तोरी। मात करू १ मति कस बिलंब उठि चलु गहि सुनु आली 1५६ गावत नाचत आनंद सो मिलि के गोरी । अष्टपदी मिलि हसत हसावत सकत न कंकन छोरी । 'हरिचंद' जुगल छवि देखि बधाई गावै । रासे रमयति कृष्ण राधा । मधुरी मूरत लखि अँखियाँ आज सिराबैं ।५४ | इदि निधाय गाढालिंगन कृत हृत बिरहातप-बाधा । आश्लिष्यति चुम्बति परिरम्भति पुन : पुन : प्राणेशं । ईमन, ताल नाम गर्भित सात्विकभावोदयशिथिलायित मुक्ताऽकृञ्चिततकेश। जै आदि ब्रहम औतारी इक अलख अगोचर-चारी: गुजलातकावन्धमाबद्ध कामकल्पतरुरूप । भारतेन्दु सपन ८८