पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२९

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AA कासीमन्तिनी कवित्त कोटिशतमोहनसुन्दरगोकुलभूप। | जानि बिन पीतम सहाय ले बसंत काम.. स्वालिंगनकण्टकित -तनु- स्पर्शोदितमदनविकार' । इनहीं कबहुँ महा प्रलय प्रचारे हैं। स्खलित वचनरचन श्रवण स्खलितीकृतरतरति-मार || आयो जानि आज प्रान-प्यारो 'हरिचंद' ह्वै के, रतिविपरीतलालसालसरस लसित मोहिनीवेश । सीतल सुगंध मंद मंद पग धारे है। निज सीत्कारमोहितप्रमदादत्तमाधवावेश । | नदि दै झरोखन को डारि परदान जामै. हुकृतिद्रिगुणसुरतपणश्रमलोलित नाशाभूष । म आवे नाहिं क्योहूँ पौन अति बजमारे हैं। निजासेचनकसिंचित शशधार-मुख-स्वेदपीयूषं । छुअन न देहौं इन्हैं सपनेहूँ अंग यह, वात्स्यायनविधिविहितषडडंग विलक्षण रक्षण दक्ष । बेई अहैं आग हवै ह्वै अंग जिन जार हैं ।६० चतुराशीति चतुरा तरता धृत कामकलाकलपक्ष । हय चले हाथी चले रथ चले प्यादे चले, . स्वेद-सुगंधविमूर्छितालिकुल सहकिकिणिकलरावं। ऊंट चले रेल चली तार धाय कै चलो । नखदानाधरखण्डनजनितोद्भटसहचारीभाव । कठिनकुचामर्दन शिथिलीकृतकरकंकणभुजबन्ध । सूर चले चंद चल्यौ तारा चलें दिन चल्यो, रैन चली छिन चले पल पल में टली । प्रतिमुद्रितसिंदूरकज्जलादिक मुख हृदय स्कन्धं । बाप चल्यौ बेटा चल्यो नारि चली मीत चले, निशावसानाजागर जेनित सखीजनमोहित तन्द्रे । गायति गोकुलचन्द्राग्रज कवि हरिनन्द कुलचन्द्रे ।५७ 'हरीचंद' चली देव-दानव की मंडली । प्रति जुग प्रति वर्ष प्रति मास प्रति दिन, गरबो प्रति धरी प्रति छिन लागी है चला-चली ।६१ थारे मुख पर सुंदर श्याम, लट्ररी लट लटके छे । गौरी जे ने जोईने म्हारो मन लाल, जाइ-जाइ अटके छे । प्रान पिया के गुन-गन सुनौ री सहेली आय । थारा सुन्दर नैन विशाल, प्यारा अति रूडा छ । सुमिरत गर भरि आवत मोर्षे कयो न जाय । जेने जोईने जग ना रूप, लागे मूंडा छ । हौं निकसी घर बाहिर पिय मिले मारग माह । थारा सुन्दर गोल कपोल, गुलाब जेव्हा फूल्या छ । मो पग छाँह छुआई प्यारे मुकुट की छाँह । जेने जोईने मन-भ्रमर, जुवतिओ ना भूल्या छ । मो द्ग जल भरि आयो लखि कै ललन सनेह । तारे कंठे बे बधनखा, मनोहर सोहे छ। बेबस मन भयो ब्याकुल कॅपि सिथिल भई देह । जेवा नव ससिना बे कटका, लखता मोहे छ । लखि मग बहु जन हौं कछु बोलि सकी नहिं हाय । तारा बोली अमृत सनी, करण-सुखदाई छे। मुख की छाँह मिलायो मुख पिय तब चलि धाय । जेने साम्हड़ताँ मन जाय, एवी मिठाई छ । गेंद उठावन मिस लै मम पग-तर की धूरि । तारो नख सिख रूप अनूप, सोभा प्यारी छ । हा हा नैन लगाई मोहन जीवन-मूरि । जेनी सोभा लखीने 'हरीचंद' बलिहारी छे ।५८ चलि चलि आगे पाछे लट्र भयो मंडराइ । बाला वल्लभ सुमिरण करताँ सहु दुख भागे छ । अनुचर भाव दिखायो प्रान-जीवन जदुराइ । जेनो मंगलमय सुभ नाम अमृत जेवो लागे छ । इक दिन भवन अकेली दुपहर बैठी भौन । जेनो सुंदर श्याम स्वरूप कृष्ण जेवो सोहे छ । आए भेस बनाए सुंदर राधा-रौन । जेने कंकुम तिलक ललाटे म्हारूँ मन मोहे छ। उठन चली आदर हित लखि पिय मोहन मैन । जेने नैणा जुगल विशाल कृपा-रस भरी रया छ । बादन इमि बैठाई कहि कहि सादर बैन । जेमा राधा कृष्णना रूप शोभा करी रया छ । ठोढ़ी गहि मुख निखरत इक टक भरि दृग नीर । जेनी लांबी लांबी बाँहों शोभा पाए छे । भुज गहि कहि हिय लाई प्रान-पिया बलबीर । जेथी तारया पतित हजार म्हारो मन भाए छे। इक चुम्बन हित उझकत जब लौं मैं ललचाय । जेना चरणे जन ना शरण तीर्थमय उभये छ । तब लौ सौ लीन्हे प्यारे कंठ लगाय । देखि सकी न पिया मुख नीचे वै गए नैन ।। जेने जाँता जनना चित्त भिया थाय निभये छ । तब लौ मैं दृग चूम्यौ सिर हिय धरि सुख-दैन । म्हारा लछमन-नंदन प्यारा गुरु केहवाये छ । मम दूग जल-कन देखत पिय अति ही अकुलाइ । जेना पद-रज पर 'हरिचंद' बलि बलि थाए छ।५९ कसिकै हिट लगायो निज ढग जल बरसाय । प्रेम-प्रलाप ८९