पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३०

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मम मुख-ससि-दिसि निरखत पिय दृग भए चकोर । | तो जे जग में बसत विषय के कीट पाप मैं पागे । भे आनंद-घन चाकत देखत मेरी ओर ।। तिनको तुम परखन का चाहत हम तो अघ अनुरागे । मम मुख पिय सुख पावत मम-मय मे पिय-प्रान । | अपूनो बिरुद समुझि करुनानिधि आदर-मय मोहि कीन्ही प्यारे चतुर सुजान । निज गुन-गनहिं बिचारी । इक मुख गुन-गन अगनित कैसे कहीं बयान । | सब बिधि दीन हीन 'हरीचंदहि लीजै तुरत उधारी १६५ हिय उमगत गर रुंधत नैन रहत भर लाय । प्यारे मोहिं परखिए नाही। परम मधुर नित नूतन कह लौं कहिए गाय । । हम न परिच्छा जोग तुम्हारे यह समुझहु मन माहीं । 'हरीचंद' पिय गुन-गन जीवन एक उपाय ।६२ पापहि सों उपज्यौ पापहि में सगरो जनम सिरान्यो । हिंडोले का प्रसंग तुव सनमुख सो न्याव-तुला मैं कैसो के ठहरान्यौ । कीटहु तें अति तुच्छ मंदमति अधम सबहि बिधि हीना। एरी हरियारी माँहि नीकी अति लागे तोहि, जो ठहरै किमि जाँच-समय में जो सबही विधि दीना । सारी हरियारी जासों तूही हरि प्यारी है। दयानिधान भक्त-वत्सल कसनामय भव-भयहारी । बृन्दाबन-देवी तू प्रतच्छ मनो आज भई, देखि दुखी 'हरीचदहि' कर गहि बेगहि लेहु उबारी।६६ हरिह की परम बियोग-ताप-हारी है। साँझ सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है । गौर-श्याम-एकता रहस्य मनु प्रगट कियो, हरि मैं सब भई सोई हरित सिंगारी है। | हम सब इक दिन उड़ जाएंगे यह दिन चार बसेरा है। 'हरीचंद' हेतु हरि कलप तरोवर में, आठ बेर नौबत बज-बजकर तुझको याद दिलाती है । लपटि रही कीरति की बेलि हरियारी है ।६३ | जाग-जाग तू देख बड़ी यह कैसी दौड़ी जाती है । दीपावली का पद आँधी चलकर इधर उधर से तुझको यह समझाती है। चेत चेत जिंदगी हवा सी उड़ी तुम्हारी जाती है । कुंज-महल रतन-खचित जगमग प्रतिबिंबन अति पत्ते सब हिल-हिल कर पानी हर-हर करके बहता है। सोभित ब्रज-बाल-रचित दीप-मालिका । हर के सिवा कौन तू है वे यह परदे में कहता है । इक-इक सत-सत लखात सो छबि बरनी न जात दिया सामने खड़ा तुम्हारी करनी पर सिर धुनता है । जोतिमई सोहित सुंदर अरालिका । | इक दिन मेरी तरह बुझोगे कहता तू नहिं सुनता है । मानहु सिसुमार चक्र उडुगन सह लसत गगन रोकर गाकर हँसकर लड़कर जो मुंह से कह चलता है । उदित मुदित पसरित दस दिसि उज़ालिका । मौत-मौत फिर मौत सच्च है येही शब्द निकलता है । मेट्यौ तम तोम तमकि बहु रबि इक साथ चमकि तेरी आँख के आगे से यह नदी बही जो जाती है । अगनित इमि दीप करै कौन तालिका । योही जीवन बह जायेगा यह तुझको समझाती है । सोरह सिंगार किए पीतम को ध्यान हिए. खिल-खिलकर सब फूल बाग में कुम्हला-२ जाते हैं। हाथ किए मंगलमय कनक थालिका । तेरी भी गति यही है गाफिल यह तुझको दिखलाते हैं। गावन मिलि सरस गीत झलकत मुख परम प्रीत, इतने पर भी देख औ सुनकर क्या गाफिल हो फूला है। आई मिलि पूजन प्रिय गोप-बालिका । 'हरीचंद' हरि सच्चा साहब राधा-हरि संग लसत प्रमुदित मन हेरि हँसत, उसको बिलकुल भूला है ।६७ जुग मुख छबि छूट परत गोख-जालिका । 'हरीचंद' छबि निहार मान्यौ त्यौहार चार, कवित्त धनि-धनि दीपावलि सब ब्रज-रसालिका ६४ वह द्विजवर हम अधम महान वह अति ही जीव का दैन्य संतोली संतोषी मैं तो लोभ ही को जामा हौं । कहिए अब लौं ठहर्यो कौन । वह स्रति पढ़यो महामूढ़ बुद्धि मेरी उन सोई भाग्यो तुव साम्हें सो गयो परिछयौ जौन । । तंदुल दियो हौ मनहूँ सो निहकामा हौं । नारद विश्वमित्र पराशर महा-महा तप-खानि । | हराचद' आइ बनी एकै बात दीनानाथ असन बसन तजि बन में निबसे जन कहँ कंटक जानि। यासों मोहिं राखि लेहु जो पै अघ-धामा हौं। तिनहूँ की जब भई परिच्छा तब न नेक ठहराए। । बालपने ही सों सखा मान्यौ हैं तुमहिं एक माया-नटी पकार तिनहूँ कह पुतरी से नचवाए। । दीन हीन छीन हों में याही सों सुदामा हौ ।६८, भारतेन्दु समग्र ९०