पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३७

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RS* श्री जयदेव सुकवि मधरी 'हरिचंद' कथा सोइ गाई ।२६, यो हरि रसमय होय कति सखियन सो व्याकल प्यारी। सो कविवर जयदेव कहयौ 'हरिचंद' कलुख कलि हारी ।२८। हरि सँग बिहरति हवैहे कोऊ । बड़भागनि जुवती गुनवारी दै गल मैं भुज दोऊ ।६० कमल-लोचन पिया जाहि गर लाइहै । मदन-समर-हित उचित भेस ले चुकि कृच कसि बांधे। सो न सजनी कबहूँ बिरह-दुख पाइहै। कच-बिर्गालत कुसुमन सों मानहूँ बीर सुमन-सर साधे । देखि किसलय सेज सो न दुख मानिहै । हरि-गल-लागत स्वेदादिक तन मदन-बिकारहु जागे । प्रान-प्रीतमहि निज निकट करि जानिहै । कृच कलसन पर मुक्तहार बहु हिलत सुरत रस पागे । अमल कोमल कमल-बदन हिय धारिहै । मुख-ससि-निकट ललित अलकावलि तेहि न सर कुटिल कामहं कबहूँ मारिहै । उमरि-घुमरि रहि छाई । अमृत मधु मधुर पिय बचन नवन पारिहे। पिय-अधरासव-पान छकी तिमि झूमत तिय अलसाई। ताहि अति मलिन मलयानिल न जारिहै। परसत उझाक कपोलन चंचल कुंडल जुगल सुहाए । थल-कमल सम चरन करन हिय चाहिहै। किकिनि कलरव करति हिलत जब ताहि चंदह न निज किरन-सर दाहिहै । श्याम सुंदर सजल जलद तन लागिहै। जुगल जंघ मन भाए । पिय तिय दिसि निरखत चितवति तासु हिय कबहुँ नहिं विरह दुख पागिहै । कछु हँसि करि नैन लजीले । कनक सम पीत पट लपटि सुख सानिहै । सो न गरुजन हँसत संक जिय मानिहै । बिबिध भाव रस भरी दिखावति लहि रति रसिक रसीले । रोम पाति उलहित तन बेपथु होत गरो भरि आएँ । तरुन-मनि कृष्ण सों सुरत सुख ठानिहै । मौद मंद दुग खोलति लै लै स्वास सुरति सुख पाएँ । सो न सपनेहुँ कबौं बिरह दुख जानिहै । सुवि जयदेव कृत गीत जो गाइहै । झलकत मुक्त-जाल से तन पर सम-सीकर अति नीके । सो न 'हरिचंद' भव-दुखन घबराइहै ।२९ रति-रन अभिरत धाकि परी गल लगिकै हिय पर पी के । श्री जयदेव सुकवि भाखित यह हरि-विहार रस गावै । भैरव काम-बिमुख हवै 'हरीचंद' सो प्रेम रुचिर *फल हम सों झूठ न बोलह माधव जाहु जू केशव जाओ । माधव नव रमनी सँग लीने । जो जिय बसी रैन निवसे जहँ ताही को गर लाओ ।5० बसी-बट यमुना-तट बिहरत रति-रन जय रस-भीने।ध्र. अनियारे दग आलस-भीने पलकें घुरि घुरि जाहीं । मदन पुलक तन चूमन पिय मुख फरकत अधर लसाही ।। जागि तिया-रस पागि न प्रगटत निज अनुराग लजाहीं । मृगमद तिलक देत ता मुख मैं मनु ससि मै मृग-छाही । बार बार चूमन सो रस भरि तिय-जुग-दृग कजरारे । जुवजन मनहर रतिपति मृग बन सघन सुघन सम कारे । लाल रहे तुव अधर लाल पै भए अंग सब कारे । चिकर निकर कर लिए संवारत थि कुसुम बहु प्यारे । | रति-नर अभिरत स्याम सुभग नभमंडल सम कुच जुग मैं धन-मृगमदलपटि सुहावै । तन नख-छत लखत सुहायो । नख-छत-ससि लाख नखत-माल सी मुक्तमाल पहिराबैं। मदन नील पट कनक-लेखनी मन जयपत्र लिखायो । नवल नलिन भुज कोमल करतल सुकमल दल से राजै ।। पिय तुव हिय तिय-पद को जावक लखहु न कैसो सोहै। मरकत कंकन तहँ पहिरावत मधुप-माल सम भ्राजै । | मनु जिय काम-लता उलही है पल्लव परि रहयौ है । सघन जघन मनु मदन-हेम-सिंहासन सुनि सोहायो । सरंग बसन पर तोरन-सम पिय किंकिन-जाल बंधायो । | तुम अति निठुर तदपि हम तुम सो तनिकहु बिलगन प्यारे। कमलालय नख-मनिगन-भूखित पद-पल्लव हिय लाई । | तुव अधरन रद-छद पै ताकी पिय उर पीर हमारे । निज मन हित मनु मेड़ बनावत जावक-रेख सुहाई । तन जिमि कारो तिमि मनहू तुव कुटिल कपट सों कारो।। इमि बलबीर निठुर बन बिहरत सँग लै दूजी नारी । अपनी जानि औरह हम कहँ बदि मदनानल जारो। ता हित तरु-तर बैठि बिलोकत बाट बृथा हम हारी। । बन बन बधुन-बधन-हित डोलत निरदय बने सिकारी । __* पाठा. अनुपम । गीत गोविंदानंद ९७