पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१३८

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  • TONE जया मैं अचरज नहिं तुम प्रथमहिं नारि पूतना मारी।। क्यों न सोभित करति कुंभ-कुच हार सों, सनि तिय-बचन सरोस पिया हठि लीनी कंठ लगाई।

हीय जासों दुगुन होइ राजै । श्री जयदेव सुकवि 'हरिचंद' बिलास-कथा सोइ गाई ।३० सघन निज जघन मैं बांधि किकिन कलित, मानी माधव पिय सों मानिनि, मदन नौबति सरिस सुरत बाजै । मान न कर मम मान कही। बहत पवन लखि हरि उठि, थल - कमल - हर मम हृदय प्रानकर, आए तू केहि सुत्र घर बैठि रही । सरस तिरंभ तव चरन प्यारे । कृच जुग कलस ताल-फल से गुस, कहै तो लाइ हिय में महावर भरौं, सरस तिनहिं कित निफल करै । हरौं, जिय - ताप आनंदवारे । बार बार सखि तेहि समझाति, सदन संताप को मदन मोहि कदन हित, किन सुंदर हरि सों बिहरै । दहत अति अगिनि तन में बढ़ाई । चरन पल्लव जुगल-गरल-हर सीस मम, बिलपति बिकल तोहि लखि. धारि किन तेहि तुरत दै बुझाई । सखिगन हँसहिं तऊ नहिं लाज धरै । देखि इमि चतुर हरि पगन परि सियहि. बैठे सजल नलिन-दल से, रिझयो लियो संक तजि अंकलाई । जन हरि लखि किन दृग पीर हरै। सोइ पदमार्वात - प्रान - जयदेव कवि, किन जिय खेद करति सुन मम, कही 'हरिचंद' लीला बनाई ।३२ बच हरि सों मिलि मृद बोलि अरी । सुनि जयदेव सखी 'हरिचंद-कथन, निज उर-दुख दूर दरी ।३१ उठि चनु मोहन-ढिग प्यारी । ___मान तजि मानु सुनु प्रान-प्यारी । मंजुल वंजुल कुज बिलोकत तुव मग गिरिधारी । दहत मोहिं मदन तुब बिरह जर जाल सों, मनावत तो कहें जे हारे, अधर मधु पान देले उबारी । कियो बिनय बहु तुव पद 4 निज सीस रहे धारे । सुरत करि उनकी तू नारी. मधुर कछु बोलि मुख खोलि जासों निरखि मंजल वजुल कुंज बिलोकत तुव मग गिरिधारी । दसन-ति बिरहतम दूर नाऊँ । पहिरि पग मनि नपुर सीरे, अधर मधु मधुर सुंदर सुधा-सिंधु, मुख पीन पयोधर सघन जघन, भर चल्लु धीरे धीरे । सासहि लखि दृग-चकोहि जुड़ाऊँ । चाल सो हंसहि सजवाई. चलु सुनु तरुनी जन-मोहन मन-मोहन बच धाई । साँचही होइ रूठी जुपै कोप करि. सफल करूँ अवनहिं मैं यारी । मंजुल वंजुग० । तौ न क्यों नयन-सर मोहि मारे । कुंज में सुनु कोइल, बोले, बधि भुज-पास सों अधर-दंतन सुसि, काम नृपति के बंदीजन से मदन-बिरद खोले । क्यों न अपराध-बदलो निवारै । चलत मलयानिल मद-माती. नव पल्लव हिलि तोहिं बुलावत निकट बिरिछि पाँती । तुही मम प्रानधन भव-जलधि-रतन तू. बिलांब न करु गज-र्गात वारी । मंजुल बंजुल० । तोहि लगि जगत हौं जीव धारौं । देख्नु फरकत जोबन दोऊ, तनिक जो तू कृपा कोर मो दिसि लखै. मदन रंग सो उडि अलिंगन चहत पियहि सोऊ । तो जहि तोहि परि बारि डारौं । गवन हित सगुन मनहूँ कीने. हीर-हार जलधार भरे जुग घट सनमुख तीने । नील नलिनी सुदल सरिस तुव नयन जुग, चूक मति समर्याह बलिहारी । मंजुल बंजल० । कोप सो कोकनद रुप धारे । तो न कीन जानि मोहि कृष्ण हति काम-सर, | सखिन तोहिं रति-रन-हित साज्यौ. अरुन करु तरुन अनुराग भारे । ' तो किन अब लौ मदन-भेरि तुव किकिन-रव बाज्यो । .. RAMM भारतेन्दु समग्र २८