पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४१

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व मानक मुक्ता-नील बनत गुंजा सो लखु सखि । ६ । जरद चमेली तरू तमाल मैं सोभित सपटी । कर ले. चूमि, चढ़ाइसिर, उर लगाइ भुज भेटि । प्रिया-रूप-अनुरूप जानि 'हरिचंद' बिमोहत । हि पाती पिय की लति बाँति धरीत समेटि ।६३५ स्याम सलोने गात पीत पट ओढ़े सोहत ।११ बाँति, धरीत समेटि. खोलि पुनि पुनि तिहि बाँचे । बरन बरन पर प्रान वारि आनंद जिय राचै । किती न गोकुल कुलबधु, काहि न किहि सिख दीन । प्रम- औधि 'हरिचंद जानि उलही उर अंतर । कौने तजी न कुल-गली हौ मुरली-सुर-लीन ।६५२ नैन नीर जग भरे लिये ही रहत सदा कर ।७ हवै मुरली-सुर-लीन कौन ब्रज पतिब्रत राख्यौ । किन प्रन पायौ, लोक-सील किन दरि न नाख्यौ नित प्रति एकत ही रहत बयस-बरन-मन एक। धुनि सुनिकै 'हरिचंद'न उठि धाई तजि को कल । चहियत जुगल-किसोर लाख लोचन-जुगल अनेक ।२३७ | हरि सों जल-पय-सरिस मिली अस किती न गोका ।१२ लोचन-जुगल अनेक होय तौ कइ सुख पायें । जग की जीवन-मूरि प्रिया-प्रिय निखि सिराबैं । | मिलि परछाँही जोन्ह सों रहे दहन के गात । गौर-स्याम हरिचंद' कोटि मोहन मनमथ-रांत । | हरि राधा इक संग ही चले गलिन मैं जात ।६५३ एक बरन एक रूप लखौ इक ही टक नित प्रति 10 चले गालन मैं जात जुगल नहिं देत नखाई।। राधा मिलि रहिं जोन्ह छाँह मिलि रहे कन्हाई । लोचन-जुगल अनेक पर्लाट यह बिधि पलक किय । गौर-स्याम 'हरिचंद' अबहिं दोउ देखो झिलि-मिति। सुधा-श्रवन-सम बैन-श्रवन-हित श्रवनह जग दिय ।। दिए हाथ पै हाथ साथ ही जाते हिलि मिलि ।१३ सेवत-हित 'हरिचंद' किये द्वै ही कर अनुचित । सिब धरी अनीति जुगल छबि किमि खिये नित 10 गोपिन सँग निसि सरद की रमत रसिक रस-रास । लाहाछेह अति गतिन की सर्बान लाखे सब पास ।२९१ मोर मकट की चंद्रिकन यों राजन नंद-नन्द । सर्बान लखे सब पास दिए नाचत गल-बाहीं। मन मसि-सेखर को अकस किय सेखर सत-चन्द ।४१५ उरप तिरपतिलेत एक बह गोपिन माही । किय सेखर सल-चंद सुरंग कसरी कलह पर । लाग डॉट 'हरिचंद' तत्तथेइ संगीतक रंग । गंगधार सी नौक रही है दिसि मोनी नर । तान मान बधान रहयौ निसि ब्रज-गोपिन संग ।१४ कहा कहौं 'हरिचंद' आज छात्र नागर नट की। मब जिय उपजन काम गटक लखि मोर मुकट की । ५ मोर जिला लखिवी पानि तर लुति सुनियत राधा-मान ।६७६ किय सेखर मत-चंद जटित नगपेच बिव परि । सुनियत राधा मान कियो हरि जात मनावन । स्याम चिक्कन चिकर आम सों स्याम भये धिरि । हवैहैं तोसी और दसेक नख-बिंबित चावन । जमना-नट 'हरिचंद' सरद निसि रासलटक की । धूरि भरी 'हरिचंद' होइहै बिगत तद्रिका । छावनखि मोही आज पीन पट मोर मुकट की । ५ जावक-रंग सों लाल लाल की मोर -द्रिका ।१५ जहाँ जहाँ ठाढौं लख्यौ स्याम सुभग सिर और । इन दुखिया अँखियान को सुख सिरजौई नाहिं । धिन छान गहि रहल दुगन अजौं वह ठोर ।१८२ | देखें बने न देखते बिन देखे अकलाहिं ।६६३ दगन अजौ वाह ठौर खरे ही परत लखाई। बिनु देखे अल्लाहि बिकल असुवन झर लावै । क्यौंह सुधि नहिं जात सोई छवि नैननि छाई । सनमुख गुरुजन-लाज भरी ये लखन पावें । समिरत सोइ'हरिचंद' पीर कसकन आत उर मह । चित्रह लखि 'हरिचंद' नैन भार आवत छिन छिन । अंसनि सोचत नहाँ खरे निरखे हरि जहँ जहँ ।१० सुपन नींद जि जात चैन कबहुँ न पायो इन ।१६ सोहत ओढ़े पीत पट स्याम सलोने गात । । * मनौ नीलमान-सैल पर आतप परयौ प्रभात ।६८९ आतप पौ प्रभात किधौं बिजुरी घन लपटी । बिन देखे अकुलाहिं बिकल अँसुवन झर रोवें । खुली रहैं दिन रैन कबहुँ सपनेह नहिं सोवै । 'हरीचंद' संजोग बिरह सम दुखित सदाहीं। सतसई सिंगार १०१