पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४५

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maste वेह ललित तृभंग सदा बाँके सब सो बढ़। । खेलन सिखए, अलि भलै चतुर अहेरी मार । यह जोरी 'हरिचंद' भली बिधि रची आपु गढ़ ।४६ | कानन-चारी नैन-मृग नागर नरन सिकार ।४५॥ नागर नरन सिकार करत ये जुलुम मचावत । नासा मोरि नचाइ दृग करी कका की सौह । अंजन गुनहूँबंधे उड़न झपटत गहि लावत । काटे नौं कसर्कात हिये गरी कंटीली भौंह ।४०६ चीन्हि चीन्हि 'हरिचंद'रसिक ये मारत सेलन । गरी कांटीली भौंह न भूलात कबहुँ भुलाये । बधि फिर सुधि नहिं लेत भले सिखये यह खेलन ।५० वह चितर्वान वह मुर्रान चलान चख चपल नचाये । प्रान रहे 'हरिचंद एक सौहन की आसा । सायक-सम घायक नयन. रंगे विविध रंग गात । उन तौ विङ्गत ही बुधि-बल मन-धीरज नासा ।४७ | झखौ बिलखि दरि जात जल, लखि उलजात लजात ।५५ गरी कंटीली भौह जीय सों चुभत सदाहीं । लखि उलजात लजात, हरिन बन बसत निरंतर । खंजन निज मद-गजन करि निवसत तरुवर पर । अब उनके बिनु मिले सखी जिय मानत नाही । लाउ बेगि 'हरिचंद' पूरि मम कोटिन आसा । सो मोहत 'हरिचंद' जौन त्रिभुवन के नायक । नाहीं तो यह तन बियेग मनमथ अब नासा ।४७ बुझे त्रिबेनी-नीर जीय-धायक दृग-सायक ।५१ गरी कँटीली भौंह कोप करि प्रगट बँकाई । अर तैं टरत न वर परे, दई मरक मनु मैन । मम भुज ट्रटन हेत सरस रिसि जीन दिखाई। होड़ा-होड़ी बढ़ि चले चित. चतुराई नैन । ३ बह छलि भाजी हाय रहयो में लखत तमासा । चित, चतुराई. नैन मधुरता बच-रस-साने । मिलन-मनोरथ-पुंज पलक मूंदत सब नासा ।४७ जोबन कच पिय प्रेम सबै साहि उमगाने । जीतन हरि 'हरिचंद, कुमक नृप मदन सुघर तें । गरी कैंटीली भौंह सोइ कसकत जिय भारी । आवत सब ही बढ़े बढ़ेई टरत न अर ते ।५२ गुरुजन की भय-देनि खानि हा हा वह प्यारी । मिलन औध 'हरिचंद' बदनि वह रार्खान आसा । जोग-जुगुति सिखये सबै मनौ महा मुनि मैन । भूलति क्यौहूँ नाहिं नचानि भौं दृग नासा ।४७ चाहत पिय अद्वैतता, कानन सेवत नैन ।१३ कानन सेवत नैन रहत नितही लौ लाए । गरी कैंटीली भौंह बिरह ब्याकुल अति भारी । हार-मद-रस सों छके छबीले उमग बढ़ाए । कोउ बिधि बेग मिलाउ मोहि सुदर सोइ प्यारी । सेली डोरे लाल लखत गुदरी पल अमिख । क्यों न लहैं अद्वैत सिद्धि प्रिय जोग जुति सिख ।५३ कहियो तुम करि सौंह न पूरत क्यों अब आसा । ताकी जाको बुधि बल सब देखत तुम नासा । बर जीते सर मैन के. ऐसे देखे मैं न । हरिनी के नैनान से हरि नीके ए नैन । ६७ खौरि-पनच, भृकुटी-धनुष, बधिक-समर, जि कानि । हरिनी के ए नैन अनी के धन बरुनी के । हनत तरुन-दृग तिलक-सर, सुरक-भाल भरि तानि।१०४ फीके कमलन करत भावते जी के ती के । सुरक-भाल भरि तानि खोजि चतुरन ही मारत । ही के हर 'हरिचंद रंग चीते प्रिय प्रीते । बधि फिर खोज न लेत चवाइन चौचंद पारत । नीते मानत नाहि चपल चीते घर जीते १५४ जिय ब्याकुल 'हरिचंद' होत गति मति सब बौरी ।। संगति दोष लगै सबै, कहे जु साँचे बैन । गोरे गोरे भाल बिलोकत केसरि खौरी ।४८ । टिल बंग भ्रव संग नै भए कुटिल-गति नैन ।३०३ भए कटिल-गति नैन कुटिलाई पिय सों ठानत । रस सिंगार मंजन किए. कंजन भजन-दैन । सीधे जित आंत रहत कान सिख नेक न मानत । अंजन रंजनहूँ बिना, खंजन-गजन नैन ।४६ खंजन-गजन नैन लुकंजन मनहूँ लगाये । अझि परत 'हरिचंद' सैन जि बनिन-पगति । पैठि हिये मन लयो तबहुँ पहिं परत लखाये । घायहु बांको करत खरे बिगरे हि संगति । ५५ वारौं कोटिक मीन, मैन-सर, मृग-छबि सरबस । कहँ ये जड़ पसु निरस कहाँ वे भरे मदन-रस ।४९ । हा । दृगनि लगत, बेधत, हियौ, बिकल करत अंग आन । म सतसई सिंगार १०५