पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४७

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मिलत धाइ अकुलाइ हेरि उतही पहुँचति डटि । भिरे प्रम-रन-रंग सुभग-दृग गुन-बल फूले ।७२। गरी कुटुंबिनि-भीर मैं रही वैठि दै पोठिा तऊ पलक करि जात उत सलज हँसौडी दीठिा सलब हँसौंहीं दीठि झपकि उत फिरही जाँही । गुरु-जन नजरि बचाए दुरि सनमुख समुहाँही । कछु देखन मिस सहज इतहि उत्त दुरि दुरि अगरी । पीतन दिसि लखिलेत लालचिन चपल अचगरी ।६७ | चमचमात चंचल नयन बिच घूघट-पट झीन । मानह सुर-सरिता बिमल जल उछलत जुग मीन ।३७६ जल उछलत युग मीन रूप-चारा ललचाने । झलकत मुख तिमि निरखि न पिय मन रहत ठिकाने सेत बसन 'हरिचंद' कहिय तन उपमा केहि सम । प्रगटत बाहर प्रभा चारु मुख चमकत चमचम १७३ भौह उँचै, और उलटि, मौर मोरि मुंह मोरित नीठि नीठि. भीतर गई. दीठि दीठि सों जोरि ।२४२ दीठि ठि सों जोरिकाज परबस अकुलानी । गुरुजन आयसु बंधी सलोनी ओट दुरानी। प्रेम-भरी 'हरिचंद' चलत द्ग चपल लजौहैं। बेबस चितवनि चितै गई मोरत निज भौहैं।६८ नावक-सर से लाइके तिलक तरुनि गइ ताकि । पावस-झर सी झकि कै गई झरोखे झांकि ।५७० गई झरोखे झांकि पिया-उर बिरह बढ़ाई । नीके मुख नहिं लख्यो रहयौ तासो अकुलाह । मीन उरि जल दुरै लुकै बन जिमि भजि सावक । तिमि यो नैन नवाइ दुरी हति पिय-उर नायक |७४ लागत कुटिल कटाच्छ-सर क्यों न होय बेहाल । सटपटाति सी ससि-मुखी मुख चूंघट-पट ढाकि । लगत जु हिये दुसार करि. तऊ रहत नटसाल ।३७५ पावस-झर सी झमकि के गई झरोखे झाँक ।६४६ तऊ रहत नटसाल सदा सालत जिय माँही । गई झरोखे झाँकि लाज-बस ठहरि सकी नहिं । बेधि पार हवै जाहितदपि ये निसरत नाहीं । इत पिय-मुख नहि लख्यौ भले तासों व्याकुल महि ।। सधिन टरत 'हरिचंद' छिनकह सोअत जागत । परेलाज-बस जुगल बिकल वह घर-मधि ये बट । बारेकह के लगे सदा लागत से लागत 1६९ | मिलि न सकत 'हरिचंद'प्रम की हिय-मधिसटपट।७५ अनियारे, दीरघ इगिनि किती न तरुनि समान । छुटत न लाज, न लालचौ प्यो लखि नैहर -गेह । वह चितवनि औरै कछु, जेहि बस होत सुजान ।५८८ सटपटात लोचन खरे, भरे सकोच-सनेह ।५२४ जेहि बस होत सुजान भावते हैं कछु न्यारे । भरे सकोच-सनेह निरखि ढिग पिय ललचाहीं । सहज प्रीति रस-रीति बिबस निज पिय बस पारे । दुरि दुरि देखहिं कबहुँ कबहुँ लखि लोग लजाहीं । कहा भयो 'हरिचंद' जु पैलाखन तिय पिय-ढिग । रोकेह नहिं रहत न चूँघट तजि सुख लूटत । प्रेमी रीझत प्रम न अनियारे दीरव ग १७० बिचि चुम्बक के लोह-सरिस कोउ बिधि नहिं छूटत।७६ दूरौ खरे समीप को मानि लेत मन मोद । जदपि चवाइनि चीकिनी चलति चहूँ दिसि सैन । होत दुहुन के दुगन ही वत-रस हँसी-बिनोद ६३९ तऊ न छाड़त दुहुँन के हँसी रसीले नैन ।३३६ बत-रस हँसी-बिनोद मान अरु मान-मनावनि । हँसी रसीले नैन करत बस-रस अरुझाने । रिझनि-खिझनि-संकेत बदनि पुनि कंठ-लगानि । भाव भरे रस भरे मैन के मनहुँ खजाने । नैननही 'हरिचंद' करत सुख-अनुभव पूरो । जग रीझो खीझो बरजौ घटिहे नहिं चाइनि । नैन मिले जिय निकट जदपि ठाढ़े दोउ इरो ७७ ये अपने रस-पगे चाव किन करहिं चवाइनि ।७१ तिय, कित कमनैती पढ़ी, बिन जिहि, भौह-कमान । फूले फदकत लै फरी, पल कटाच्छ-करवार । चित बेधै चूकति नहीं बंक बिलोकनि-बान ।३५६ करत बचावत विय-नयन-पाइक घाइ हजार २४७ | बंक बिलोकनि-बान सबै विधि अजगुत पारत । पाइक घाइ हजार करत जुरि जुरि दुरि जाहीं । बिनु देखी जो वस्तुताहि तकि कै किमि मारत । फिर डॅटि मनमुख लरहिं बचहिं अभिरहिं मुरि जाही। काढ़े औरह चुभत अनोखे चोखे सर हिय । जुगल चतुर 'हरिचंद' भीर भुलवत नहिं भूले ।। बधिन बेझ ले जात सिकारिनि अत बिचित्र तिय ७८ 10. सतसई सिंगार १०७