पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१५२

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माननाथ अहे फागुन को या में काफी सका अपने मुख को प्रात जमुना निरमल वल बडो AREE ये तो तुम बिनु गौन करन को रहत तयारहि प्रान । 'हरीचंद' तुम बिन कैसे बचिहै प्राननाथ हो प्यारे लाल हो जिय में नहि रहि जाय । विरहिन बिकल उदास रे ।२० तासों भुव भरि मिलि के भेटहु सुंदर बदन दिखाय काफी प्यारे लाल हो पल की ओट न जाय । लाल फिर होरी खेलन आओ। विना तुम्हारे काहि देखिहे अँखियां हमें बताव । फेर वह लीला को अनुभव हमको प्रगट दिखाश्री । प्राननाथ हो प्यारे लाल हो साथिन लेह बुलाय । फेर संग ले सखा अनेकन राग धमारहि गाओ । गाओ मेरो नामहि ले ले डफ अरु बेनु बजाय । प्राननाय हो प्यारे लाल हो आह भरो मोहि अंक । | फेर वही बसी धुनि उचरो फिर वा डफहि बजाओ । फेर वही कुज वह धन पेली फिर ब्रज-बास बसाभो । तो मास आहे काका सक। प्राननाथ हो प्यारे लाल हो देह अधर-रस-दान । 'हरीनंद' अब सही जात नहि खबर पाइ उठि धाो ।२१ मुख नूमहु किन पार धार दे अपने सिंदूरा प्राननाथ हो प्यारे लाल हो कब कब होरी होय । एरी कैसी भीर है होरी के दिन भारी । स। तासों संक छोड़ि के विहरो दै गल में भुज दोय । जाइ मनाइ कोउ ले आओ प्रानपिया गिरधारी । प्राननाथ हो प्यारे लाल हो रही सदा रस एक खेलनवारे बहुत मिलेंगे राग रंग पिचकारी ! दूर करो या फागुन में सब कुल अरु बेद-विवेक । 'हरीचंद' इक सो न मिलेगी जो कटिह मोहि प्यारी२२ प्राननाथ हो प्यारे लाल हो चिर करि थापी प्रम । बिहाग दर करो जग । यह ज्ञान-करम-कुल-नेम । प्राननाय हो प्यारे लाल हो सदा बसौ ब्रज देश । बिनु पिय आजु अकेली सजनी होरी खेलौं । विरह-उसास उड़ाइ गुलालाहि दग-पिचकारी मेलौं । यही अरु को होउनलेस प्राननाथ हो प्यारे लाल हो फलानि फलो गिरिराज । गाओं बिरह-धमार लाल ताज हो हो बोलि नवेली । लाही अखंड सोहाग सबै व्रज 'हरीचंद' चित माहिं गताऊँ होरी सुनो हो सहेली ।२३ पिया के प्राननाथ हो प्यारे साल हो जाइ पचारी कंस । गौरी फेरौ सब थख अपनि दुहाई करि दुष्टन को धस । एरी बिरह बढ़ावन आयो फागुन भास री । प्राननाच हो प्यारे लाल हो दिन दिन रहो वसंत । हो केसी अब कर कठिन परी गाँस री। यही खेल ब्रज में रहो हो सब विधि अति सुखद समंत। और रितु हो गयी बयारहु और री । प्राननाथ हो प्यारे लाल हो बादी अविचल प्रीति । और फूले फूल और बन ठौर री। नेह निसान सदा बजे जग चलो प्रेम की नीति । और मन बैगयो और तन पीय को प्राननाथ ये प्यारे लाल हो यह बिनली सुनि लेहु । और चटपटी लगी काम की जीव को । 'हरीचद' की बांह पकरि इन पाछे छोड़ न देहु ॥१८ बन के फूल देखि होत जिय सूल ? बिनु पिय मेटे कौन विरह की इल री। देश बिसरो भोजन पान-खान सुख-चैन री रंग मति द्वारो मोपे सुनो मोरी बात । वही बमारी नहीं रहत दिन-रैन री बड़ी जुगति हो तोहि बताऊँ क्यों इतने अकुलात । रजनी नीद न आवे जिय शकलाय री। श्री वृषभानु-नंदिनी ललिता दोऊ वा मग जात । चौकि चोकि हौं परों चित्त पचराय री । तुमहुँ जाहमापुरी कुंज मैं पहिले हि क्यों न दुरात । अटा अटा चदि गेलो पिय के हेतरी । थे उस खोचक जाइ परे तब कोजी अपनी घात । कहूं नहीं मेरे लाल दिखाई देतरी 'हरीचंद क्यों इतहि खरे तुम बिना पात इठलात 1१९ सपने में जो कहुँ पिय-रूप दिखात री । । तो यह वेरिन नींद नोकि तजि जात री । पूरबी तुमहिं अनोखे बिदेस चले पिय आयो फागुन मास रे । जो कहुँ बाउन बाजे गोकुल-गेल री। रुले फूल फिर सब पची पहि रही बिपत बतास रे । तौ उठि पाऊँ अवत जान छैल रो। या घर मै सखि क्यों नहिं लागत नागरी । या रितु मैं कोउ जात न बाहर भयो काम परकास रे जाके डर ही खेलन जात न फागरी । भारतेन्द्र समग्र ११२