पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१५४

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धमार देश धमार काफी AAN Sex अति जमात अलसात लार रस-भीने हो । प्राननाथ आवन सुनि फिर पग घर में क्यों ठहराय । कित खेले तुम रैन फाग रस-मीने हो । 'हरीचद' गर लगोगी पिया के जाने-जगत बलाय ।३५ कौन को दियो सोहाग लाल रस-भीने हो । | ठेका या ब्रज को तेरे माथे कौन थ्यो। आज अहो बिनही गुलाल रस-भीने हो। जो तू लंगर दीठि उपाधी ऊधम रूप भयो । नैन दोउ लाल लाल रस-भीने हो। | काहुन डरत करत मन की नित ठानत रंग नयो । गाँव न मिली गुलाल प्यार रस-भीने हो । 'हरीचंद ब्रज डगर-इगर बदनामी बीच बयो ।३६ जायक लग्यो लिलार लाल रस-भीने हो । होली काफी मिलल न चोआ वाके देस रस-भीने हो । अंजन अपर सुबेस लाल रस-भीने हो । पिय मनमोहन के संग राधा खेलत फाग । धू. कुमकुमा मोर दे चलाय रस-भीने हो। दोउ दिसि उड़त गुलाल अरगजा बेउन उर अनुराग । ताको चिन्ह दिखाय लाल रस-मीने हो। रंग-रेलनि मोरी मेलनि में होत इगन की लाग । बांध्यो अंग-अंग भुज मनाल रस-मीने हो । 'हरीचद' लखि सो मुख शोभा-अयन सराहत भाग।३७ दह उर बिनु गुन माल लाल रस भीने हो । रंग के बदले पीक लाय रस-भीने हो। नीलो बसन उदाय लाल रस-भीने हो साडला म्हारा मीजे न द्वारौ रंग । धू, मति नाखो गुलाल आँखन में सीखा छौ कनि रौढ़ । को ऐसी माती खेलार रस-भीने हो। ना तेइ म्हारो मति गावो गारी संग बजाइ के चंग । जिन रिझयो रिझवार लाल रस-भीने हो । नैन मिलाओ मात रस-भीने हो। 'हरीचंद मद-मात्यो मोहन मति लागो म्हारे संग ।३८ काहे को सकुचात बाल रस-भीने हो । कोन सो आसव कियो पान रस-भीने हो। सुंदर श्याम शिरोमणि प्यारो खेलत रस-भरि होरी चू । मत भये हो सुजान लाल रस-भीने हो। इत सब सखा लसत रंग-भीने उत वृषभानु किशोरी चू । 'हरीचद' इमि कहत बाल रस-भीने थे। नाचत गावत रंग बढ़ावत करन बजावत तारी। भुव भरि लई गोपाल लाल रस-भीने हो ।३२ हसत हसावत रंग बद्मावत गावत मोठी गारी बू । श्री राधा हैसि मोहन पकरे अपने वश करि लीन्हें चू । राग पील रंग मचाइ नचाइ गवायो मन भाए सुरु कीन्हें जू रिझया मन से कर जोरे ठाडो द्वार । कहत लाल छूटन नहि पैहो बिनु फगुआ बाहु दीन्हें बू तू तो मानिनि मात न माने करत न कळू बिचार । मो वश पर भागि कित जेही गादि चतुरई कीन्हें जू । वह तो रसिया या दरसन को मानहि को रिझावर । राधा जू के पाय पलोटो अरज करो कर जोरी जू बाके नैनन आछे लागे विधुरे सुधरे भार तो होरै नृप वृषभान-किशोरी | विन भूवन तन कछुक बसन बिन बिन चोली बिन हार । | मोहि कहत दधि निरखि लैन दे तू मति करि मनुहार । | यह गति लखत देवगन हा खखात लाल कर जोरे करत बहुत अनुहारी बू। दैतारी बढ़ो इकटक मुख निरखत है मनवत नाहि विचार । तीन लोक जाकी चरन छाँह बल जियत बसत सुख पाई जू। 'हरीचंद तू थन्य मानिनी धनि या छवि को प्यार ॥३३ ताको गोपीजन के आगे चलत न कछु ठकुराई । सोरठ शिव-ब्रह्मा इंद्रादिक जाको परसत चरन डराही ५ दिन दिन होरी बूज में जाओ। | ताको मुकुट उतारत गोपी तनिक शक जिय नाही बू । चिरजीओ जुग-जुग यह जोरी नित कर जोरि मनाओ । । दासी माया इक फेरे जग 'जग पर-बस हवे नाचै । नित वरसो रंग नितहि कुतूहल नित-निल खेल मचाओ साहि नचावत पकरि गोपिका लखि जिय अचरज रावै। अस्तुति करत अघर सूखत है नेति कहत तउ वेदा जू । जन एक डफ धुंकार सुनि गन न रहोगी ध्यान धरत पूजत बहु भाँतिन तदपि ध्यान नहिं आवै । भफागुन लहि उमायो जो मदन विय सो अब रोकिन जाय फटकार लाजवती सुख लेते। मिलांगी मील को धाय । ध, शिव समाधि-अम साधि करत नित तउ भालक नहिं देते। | ताहि गुलाल लगाइ हसत सब करत जोई मन भावे च । | तब चाशी होड्यो देवगन व्याकुल ग्वाल हसत देता। सचदा या काल-बधाई नित आनंद सो गाठो ६३४ | माता किस गोपी चन करत न खेदा च । घमार सिंग a भारतेन्दु समग्न ११४