पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१५८

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YO** 'हरीचंद' तेरे पाँव परत गारी मति दे अपजस बहुत दयो ।७७ आजु मैं करूँगी निबेरो जो तू ठाढ़ो रहैगो रँग मैं। अबही निकासंगी सगरी कसर जो तू रोकत टोकत रह्यो नित मग मैं । बाँधि भजन सों निज बस करि के मुख चूमोंगी प्रेम-उमग मैं । 'हरीचंद' अपनो करि छाड्गी मीर कहाऊँगी सगरे जग मैं ।७८ नित नित होरी ब्रज में रही। बिहरत हरि-संग ब्रज-जुवतीगन सदा अनंद लहौ । प्रफुलित फलित रहौ वृंदाबन मधुप कृष्ण-गुन कहौ । 'हरीचंद' नित सरल सुधामय प्रम-प्रवाह बही ।७२ मधु-मुकुल मधुरिपु मधुर चरित्र मधु-पूरित मृदु मुद-रास । हरिजन मधुकर सुखद यह नव मधु-मुकुल-प्रकास । हृदय बगीचा अन जल बनमाली सुखबास । प्रम-लता में यह भयौ नव मधु-मुकल-बिकास । [बनारस लाइट यंत्रालय में सन् १८८१ में मुद्रित ] समर्पण हृदयवल्लभ! यह मधु-मुकुल तुम्हारे चरण-कमल में समर्पित है, अंगीकार करो। इसमें अनेक प्रकार की कलियाँ हैं, कोई स्पुटित कोई अस्फुटित, कोई अत्यंत सुगंधमय कोई छिपी हुई सुगंध लिए, किंतु प्रेम सुवास के अतिरिक्त और किसी गंध का लेश नहीं। तुम्हारे कोमल चरणों में ये कलियाँ कहीं गड़ न जायँ, यही संदेह है। तथापि तुम्हारे बाग के फूल तुम्हें छोड़ और कौन अंगीकार कर सकता है, इससे तुम्ही को समर्पित है। फागुन कृष्ण तुम्हारा हरिश्चंद्र। सं. १९३७ भारतेन्द्र सम। ११८