पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१५९

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राग बसंत जै यह रितु बसंत प्यारी सुजान । मधु-मुकुल नहिं ऐसी समय में कीजे मान । लखि शोभा यह रितुराज की । वृषभानु-नदिनि राधे मोहन प्रानपियारी । सब सुंदर सुखद समाज की । ने श्री रसिक कँवर नंदनंदन सुंदर गिरिवरधारी । फूले नव कुसुम अनेक भाँति । जै श्री कंज-नायिका जै जै कीति-कुल-उँजियारी । मनु नव-रतनन की नवल पाँति । जै वृंदावन-चारु-चंद्रमा कोटि मदन-मद-हारी । हरि बैठे हैं तो बिनु उदास । जै ब्रज-तरुन-तरुनि-चूड़ामनि सखियन मैं सुकुमारी । चलि बेगहि प्यारी पिय के पास । जर्यात गोप-कृल-सीस-मुकट-मनि चलिये बनि उनि रितुराज जान । नित्य-बिहार-बिहारी । 'हरिचंद' कहै सो लीजे मान ।५ जति बसत जति बूंदाबन जति खेल सुखकारी । प्यारी पौढि रहौ अब समै नाहिं । सब सखियाँ अपने घरन जाहिं। जय अद्भुत जस गावत शुक मुनि 'हरीचंद' बलिहारी। ऋतु सिसिर सुखद अति ही सुदेस । सब दिन बीत्यौ खेलत असंत । सूचित बसंत भावी प्रवेस । अति आनंदित सब सुख समंत । मुकलित कचनार सुठोर ठौर । चोवा चंदन बुक्का गुलाल । बन दरसाए नय बौर बौर । राँग भीनि बसन ह्वै गयो लाल । भरि रही अंग-अंगान अबीर । कहुँ कहुँ पिक बोले वैठि डार । मनु रितुपति नव चोबदार । सो पोछि पहिन के नवल चीर । ईल पवन सुखद छबि कहि न जाय । इमि सुनि हरि की बतियाँ ललाम । रहे जल लहराय अनंद बढ़ाय । श्रीराधा आई कुंज-धाम । फूली अतिसी सरसों सुहात । पौढ़े दोउ सुख सों एक पास । मानों मिलि मदन बसंत गात । तन मन वार्यो 'हरिचंद' दास ।६ गेंदा फूले सब डार डार । बिहाग धमार मनु पाग पहिरि ठाढ़ी कतार । अरी वह अबहिं गयो मुख माड़ि। गूंजे भंवरा सब झोर झोर । आवेस भयो तन मदन-जोर । करि बेसुध भरि रूप ठगौरी तलफत ही मोहिं छाँड़ि। हौं आई जल भरन अकेली नाहक जमुना-बाट । लखि बिहरन जुगल लजाय मार । 'हरीचंद' हरीष गाई बहार ।२ मारग ही में आइ कढ़यो वह साजे होरी ठाट । औचक पाछो सों मेरी गागरि दीनी सिर से होरि । खेलत बसंत राधा गोपाल । नैन मूदि मेरो मीजि कपोलन कंचुकि डारी तोरि । इत ब्रज-बाला उत ग्वाल-बाल । गाढ़े भुज कसि हिये लगायो चुंबन दे ब्रजराज । गावत बहार दै बिबिध ताल । औरहु कछु करि गयो ढिठाई मैं रहि गई करि लाज । बाजत मृदंग आवज रसाल । अबहीं चल्यो जात कछु मुरिकै चितवत मन हरि लेत। तहँ उड़त बिबिध बुक्का गुलाल । सैनन हा हा खात छबीलो ऊपर गारी देत । गारी दै दै बहु करत ख्याल । कहां गयो री कोउ बताओ रूप चटपटी लाय । बादी सोभा अति तौन काल । हों इत रही कराहत ही सखि बेसुध करि करि हाय । 'हरिचंद' निरखि हरषित बिसाल ।३ 'हरीचंद' तजि लाज काज सब नेह-निसान बजाय । श्याम सरस मुख पर अति सोभित तनिक अबीर सुहाई। अब नहिं रहिहौं बरजौ कोऊ मिलिहौं हरि सों धाय ।७ नील कंज पर अरुन किरिन की मनहुँ परी परछाई । डफ की मनु अंकुल अनुराग सरस सिंगार माझ छबि देई । मैं तो मलौंगी अबीर तेरे गालन मैं किधौं नीलमनि मधि इक मानिक निरखत मन हरि लेई। चन्द-बदन मैं मंगल को मनु अंग निरखि मन मोहै । मलि गुलाल आँखें आँजौंगी चोटी गुहौंगी बालन मैं आज कसक सब दिन की निकसै बेंदी दै तेरे भालन मैं। 'हरीचंद' छबि बरनि सकै सो ऐसो कबि जग को है ।४ 1 1 मधु मुकुल ११९