पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६१

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WA प्रान-पियारे अवीर न मेली।। सारे गिनत लेत करवट बहु होत न कठिन प्रभात ।' देखन देहु मधुर मूरति मोहि | नैनन नींद न आषत क्योंद्र जियरा अति अकुलात । अटपट खेल पिया जिन खेली। 'हरीचंद' पिय विनु अति व्याकुल आओ गर लगि तपन धुभाऊँ मुरि-भूरि पछरा खात ।२७ काहे करत ही रंग को रेली। सिंदग 'हरीचंद' गर लगि प्यारी के भले मिलि नाँव धरो सबरे ब्रज के क्यों न सुरति-सुख-सिंधु सकेलो :२१ अब तोहि न छाई छैन । जोगिया काफी | मोहन लगी फिरौं निसु-घासर और रंग जिन द्वारौ रंगी मैं तो रंग तुम्हारे । कुंज घाट बन गैन । कोऊ बात सो ढोऊं जो बाहर तो तुम गारी उचारी | सुख सो लाज सिधारो सुरग काहे को बरबस लोग ईसायत निलज खेल निरवारो। कों काह की हीन दल । 'हरीचद' गर लगि के मेरे जिय की हौस निकारौ ॥२२ / 'हरीचद' तजि जाऊँ कहाँ काफी जब सबहि कहत बिगरैल २८ फेर याही चितवन सों चित्तयो । बिहाग या काफी लगी काम-चावुक सी हिय पर तन मन बिकल भयो । आजु सखि होरी खेलन प्यारे पीतम आवेगे मेरे धाम । भले लाज धीरज बुधि-पल सब गुस-बन-भयहु गयो। रंग सों भरोगी कछु न डरौंगी पुषयोगी मन काम । 'हरीचद निधरक उर मैं फिर काम को राज ठयो ।२३ गाल गुलाल लगाई माल गल देके कसंगी प्रनाम । काफी 'हरीचंद' मुख चूमि भुजा भरि मेट्रगी दुख को नाम ।२२ होरी है के राम-राज रे। बिहाग या सिंदूरा यो तू गिनत न कट काहुवे अजु सखि होरी खेलन पीतम करत आपुनेइ मन के काजरे । ऐहे फरकत आयो नैन । निधरक अंग पसरत नारिन के पुवयोगी सकल मनोरथ जिय के गारी अकि-बकि लेत लाज रे । सुख सो विताउंगी रेन। 'हरीचंद' भयो छैल अनोखा | दोउ भुव गल दै मुख चूमौगी वरजेह नहिं रहत बाजरे २४ करूंगी उमगि सुख-चैन । पीलू काफी 'हरीचद' हिय सफल कसंगी सुनि वा मुख के बेन ।३० यह दिन चार बहार, री पिय सों (गोरी। काफी फिर कित तू कित पिच कित फागुन यह जिय माँझ विचार । आयु मै कसंगी निवेरो खेल को जोबन-रूप-नदी बहती यह ले किन पाँच पधार । जो तू ठाढ़ी रहेगो रंग में। 'हरीचंद' मति चूक समै तू कस सुख सौ तेहजार २५ अवहीं निशातूंगी सगरी कसर जो सिंदुरिया ( रोकत टोकत रहयो नित मग मैं । बाँध मुजन सो निज बस करके ऐरी जोवन उमग्यौ फागुन लगिक मुख चुमौंगी प्रेम-उमग में। कोउ विधि रहयो न जात । 'हरीचंद' अपनो करि छाईंगी मानत अब न मनाए मेरे जिय अति ही अनुष्कात । मीर कहाऊंगी सगरे जग मैं ।३१ | कहा करो कित जाऊँ सहेली कठिन काम की घात । पीलू 'हरीचंद' पिय बिनु मेरी कोउ पूछत हाय न बात ।२६ बन-बन फिरत उदासरी, मैं पिय प्यारे बिन । न लगत जिय घाट बाट पिया बिनु कटत न दुख की रात । घर फिर-फिर लेत उसासरी, मधु मुकुल १२१