पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६२

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he मैं पिय प्यारे बिन । बे-परवाही के संग मन फाँस गयो कदावे । कछु न सुहात धाम धन के सुख वह न गिनन त्रिनह सों जा हित धरन सबै ब्रज नाय जियत मिलन की आस । बेढब फसी कौं का सजनी कहा करूँ किन जावें । 'हरीचंद' उमगेई आवत दोउ दृग होइ हरास ।३२ 'हरीचंद' नहि पूछन कोऊ मारि फिर्टी सब गाय ।४० उमग्यौ जोबन जोर री, पिय बिनु नहिं माने । इकताला देखि फाग-रितु बन द्रुम फूले कियो मदन घनघोर री । पिया प्यार मैं तेरे पर वारी भई । बाही अंग-अंग काल-कसक अति सुनि-सुनि कोइल सोर री । सहज सलोनी सुंदर सूरत निरखत ही बलिहारी भई । 'हरीचंद' प्यारे बिन मारत छिन-छिन मदन मरोररी ।३३ अव ना रहौं घर लाख कहो कोऊ सब ही भाँति तुम्हारी भई। 'हरीचंद' सँग नागी डोलौं सुंदर रूप-भिखारी भई ।४१ पीलू खेमटा बिहाग सलोनी तेरी सूरत मेरे जिय भाई । तन में नैनन में छुबि तेरी रही समाई । सोई पिय के गर लपटाई । इन आँखिन को और रुचत नहि करौ अनेक उपाई। सीस धूजा ने पिय के हिय मों कास के हियो लगाई । 'हरीचंद' तू ही इक सरबस जीवन-धन सुखदाई ।३४ | निधरक पियत अधर-रस उमगी तऊ न नेक् अघाई । निवानी तेरी सूरत मेरे मन बसी । 'हरीचंद रस-सिंधु-वरंगन अवगाहन सुख पाई ।४२ नेन उदास अलक असमानी मेरे जिय सों फंसी । भीमपलासी कोटि बनावट वारौं इन पैं सहजहि सोभा लसी । फेर चलाई रंग पिचकारी । 'हरीचंद' फांसी गर डारत तनक मंद मृदु हँसी ।३५ गाई फेर वह मीठे सुर प्रेम-भरी सोई गारी । मैरवी या काफी फेर वहे चितवन चितई जो तन-मन-वेधन-वारी । पिया मैं पल ना तजो तेरो साथ । 'हरीचंद' फिर मदन बिबस भई, एक ओर अब जगत होउकिन अब कलंक लियो माथ। मैं कल-नारि विचारी ।४३ जनम-जनम की दासी मैं तेरी तुम ही मेरे नाथ । काफ़ी सिंदूरा 'हरीचंद' अब तो तेरो दामन पकरो गाढ़े हाथ ।३६ इतरानो फिरि तू भले अपने काफी मन मैं न गिनों कछु तेहिं माल । सखी री अब मैं कैसी करौं । चार दिनाको छैल छोहरा सोऊ भयो वह रसिकलाल । बिनु पीतम गर लगें कौन बिधि जीवन के दिन भरौं । गारी गावत उहि बजावत ऐड़ानो चले मस्त चाल । लिनु पीतम हिय मैं हिय मेले कठिन ताप किमि हरौ । 'हरीचंद छिन में सो भुलाऊँ परि नचाउँदै दै ताल ।४४ 'हरीचंद' पूछे किन उन सौं कब लौं या दुख जरौं ।३७ बिहाग धनाश्री सोई सुख फिर चाहे पिय प्यारो। फेर अब आई रैन बसंत की । एक बेरि चलि फेर निकजन जहँ ब्रजराज दुलारो । बलि चली पौनह सुगंध भरि नवि के सीत हिमंत की । जहँ रस-रंग विलास किए बह तुम सँग मिलि के प्यारी । फिर आई दुखदाइन पिय बिनु घरी बयोगिन अंत की । 'हरिचंद पाती ले आओ अबहूँ तो कोउ कंत की ।३८ तहीं बैंठि सुख सोचि सकल सोइ बेबस होत मुरारी । नुव गुन-गन द्गार भरि भाखत पिय ब्याकल हवै त्राई। यथा-सचि राधा-नाम-अधार जिअत है प्यारो कभर कन्हाई । घर में छिनहूँ थिर न रहै । फेर-फेर सखियन सों पुछत चरित तिहारे आलो । दौरि-दौरि झाँति दुआर लांग पिय को दरस चहै । तुव बैठनि बतरानि हँसनि धि कर उमगत बनमाली । रूप-सुधा पीअति अधाति नहि पिय के गुनहिं कहै चलु कित बेगि कुंज-मंदिर मैं लै पिय को गर लाई । 'हरीचंद' रस-माती पलहू दग अंतर न सहै ।३९ 'हरीचंद' दै अधर-अमृत पिय-प्रानहि राख्न बचाई ।४५ ईमन सिंदुरा गोरी-गोरी गुजरिया भोरी संग लै कान्हा ।। 1 भारतेन्दु समग्र १२२