पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ले रोरी ।

  • 409

नट ललित जमुन-तट नव बसंत करि होरी । आलस मैं कछु काम न चलिहै सब कछु तो बिनसोरी । सोभा-सिंधु बहार अंग प्रति दिपति देह दीपक- कित गयो धन बल राज-पाट सब कोरो नाम बचोरी। सी छबि अति मुख सुदेस ससि सो री । तऊ नहिं सुरत करो री। आसाा करि लागी पिय सो रट सुर गावत ईमन हट । कोकिल एहि बिधि बहु बकि हार्यो काइ नाहिं सुनोरी । मेघ बरन 'हरीचंद' बदन अभिराम करी बरजोरी । मेटी सकल कुमेटी थोथी पोथी पढ़त मरो री। सारंग-नैनि पहिरि सुहा सारी भयो कल्यान मिले । काज नहिं तनिक सरोरी । श्री गिरिधारी छवि पर जन तुन तोरी ।४६ | चालिस दिन इमि खेलत बीते खेल नहीं निपटोरी । होली भयो एक अति रंग को तामैं गज को जूथ फंसो री । भारत मैं मची है होरी । न कोउ बिघि निकसि सको री । इक ओर भाग अभाग एक दिसि होय रही झकझोरी । खेलत खेलत पूनम आई भारी खेल मचो री । अपनी-अपनी जय सब चाहत होड़ परी दुहुँ ओरी । चलत कुमकुमा रंग पिचकारी अरु गुलाल की झोरी । दुन्दु सखि बहुत बोरी। बजत डफ राग जमोरी। धूर उड़त सोइ अबिर उड़ावत सब को नयन भरोरी। होरी सब ठाँवन ले राखी पूजत दीन दसा अंसुअन पिचकारिन सब खिलार भिजयो री । घर के काठ डारि सब दीने गावत गीत न गोरी । भीजि रहे भूमि लटोरी। भूमका भूमि रहोरी। भइ पतझार तत्व कहुँ नाहीं सोइ बसत प्रगटोरी। तेज बुद्धि-बल धन अरु साहस ऊधम सूरपनो री । पीरे मुख मई प्रजा दीन हवै सोई फूली सरसों री। होरी में सब स्वाहा कीनो पूजन होत भलो री । सिसिर को अत भयो री । करत फेरी तब कोरी। बौराने सब लोग न सूझत आम सोई बौर्यो री । फेर धुरहरी भई दूसरे दिन जब अगिन बुझो री । कुहू कहत कोकिल ताही तें महा अँधार छयो री। सब कछु जरि गयो होरी में तब धूरहि धूर बचोरी । रूप नहिं काहू लख्यो री । नाम जमघट परोरी। हार्यो भाग अभाग जीत लखि बिजय निसान हयो री। फॅक्यौ सब कुछ भारत नै कछु हाथ न हाय रहो री । तब स्वाधीनपनो धन-बुधि-बल फगुआ माहि लयो री । तब रोअन मिस चैती गाई भली भई यह होरी । शेष कछु रहि न गयो री। भलो तेहवार भयो री ।४७ नारी बकत कुफार जीति दल तासु न सोच लयो री । मूरख कारो काफिर आधो सिच्छित सबहि भयो । होली लीला उत्तर काहू न दयो री । उठौ उठौ भैया क्यौ हारौ अपुन रूप सुमिरो री । राम युधिष्ठिर विक्रम की तुम झटपट सुरत करोरी । राग मधुमात सारंग वा गौरी दीनता दूर धरो री। कहाँ गए छत्री किन उनके पुरुषारहि हरो री। रंगीली मचि रही दुहुँ दिसि होरी, चूड़ी पहिरि स्वाँग बनि आए धिक धिक सबन कहयौ री । इत हरि उत बृषभानु-किसोरी । भेस यह क्यों पकरोरी। चलत कुमकुमा रंग पिचकारी, अरुन अबीर की झोरी । धिक यह मात-पिता जिन तुमसों कायर पुत्र जन्योरी । इत जमुना निरमल जल लहरति तरल तरंगनि राजै । धिक वह घरी जनम जामैं यह कलंक प्रगटोरी। उत गिरिराज फलित चितित फल चिंतामनिमय भ्राजे जनमतहि क्यों न मरोरी । ता मधि बिपुल बिमल वृंदाबन जुगल केलि-थल साहै। खान-पियन अरु लिखन-पढ़न सों काम न कछु चलोरी । षटरितु रहत जहाँ कर जोरे बैकुंठहु को मोहै। आलस छोड़ि एक मत हवैकै साँची बृद्धि करो री। जाही जुही केतकी कुरवक बकुल गुलाब निवारी । समय नहिं नेकु बचो री। फूले फूल अनेकन लपटत लहरत केसर क्यारी । लपटी लता तरोवर सों बहु फूलि फूलि मन भाई । उठौ उठौ सब कमरन बाँधौ शस्त्रन सान धरोरी। बिजय-निसान बजाइ बावरे आगेइ पाँव धरो री । मनु मंडप में दुलहा दुलहिन रहे सेहरन लाई । छबीलिन रंगन रंगोरी । कहुँ कहुँ सघन तरोवर सो मिलि मंडन सुंदर छायो । 1 11 मधु मुकुल १२३