पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६५

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भातप्रोत मनु जुर्वात मनोरथ सोत पोत मनि ख्याशा। PHER भीजे वसन सये तिन मधि कोउ सीत-भीत अति काप प्रियावरोधन चतुर बाहु जुग देखत ही मन मोहै। बाह के पट हटे लाज सो अपनो तन कोड हॉप अति आतुर तिय गर लगिवे को नील वेलि सी सोहै । एकन को इक पकरि नचायत एक बजावत लारी। मनिनपूर केयूर जुगल पर नो-रतनी कसि बाँधी । आपुन हसत हसावत औरन देतं कुपारी गारी । नभ भसुड के सुंड-दद धूव सह ग्रह पेगति नांधी । रंग जम्यो होरी को भारी मद-माते नर-नारी ।। मनिषधन मनिबंध कलित कंगन पहुंची मन-भाई। सबके नैनन में देखियत इक होरी-खेल-खुमारी । जुगल नवाण पल्लव मै मानई कसुम-लता लपटाई । तिन मधि पूँघर में गुलाल के लसत जुगल लपटाने । जुवती-उर परसन अति चंचल कर जुग अति रंग माँटे । भीगे रंग सगबगे बागे रस-बस आलस साने। हाहि हाथ खेत ये चित को फेर कचहुँ नहि छाँडे । श्याम सरूप मनोहर मोहन कोटि काम लखि लाजै। ऊरधरेख चक्र-चिन्हन सो चिन्हित कर-तल देखे। उमगत अंग अंग तें जोबन वय किसोर नव भावे । मनु गुलाल पाटी में कित किए मदन निव लेखे । मनु मानिक नीलम मिलाइ दोउ सरस पुतरी द्वारी । पोर पोर अंगुरी मैं मुदरी ऊपर नख इति भारी । उलहत रोम रोम में सोभा कवि-रसना-मति हारी । विद्रुम कली अन मुक्ताफल मीना मध्य संवारी । अंग अनंग भयो आगम के दिन सहहि सुंदराई । कदलिपत्र सी पीठ दीठ परि नीठ नीठ नहिं चाले । लखताहि मन मोहत जुवतिन को चढ़त तरल तरुनाई । ता पर पीस उपरना सोभित खपटी धूप तमाले । पद-तन लाल प्रपाल चिन्ह धुज अंकुस मंडित सोहै । जावर पीकादिक छापित बर रंग भयो मन मोहै। नथ पत्तथ पर सरस औस-कन से नख लखि मन मोहै। सोना और सुगंध दोऊ मिलि नगन जरयी अति सोहै । चरन मंजु मंजीर विविध नग-जटित न परत वखाने । कलकल कठ कुछ कर सोभित कंठ पीक-साथि छापे । मनु मनिगन मिस मुनिजन को मन रहत चरन लपटाने । मनहुँ नीलमनि सरस सुराही अमृत भरी अति रावे । जुगल पीड़री गुलफन की छभि लगत दुगन अति नीकी चिचुक चार मोहत मन जोहत करन करन छवि भारी । मनु बेदर्य डार जग सुंदर करत जगत छवि फीकी । युगल कपोल गोल दरपन सम प्रतिबिंधित जाई प्यारी । काल-संभ सम जंघ जुगल जेहि रमा पलोटन चाहे सका स्वाद रस-मूल अधर जुग कोमल अति धनियारे । तापै नपाट रहयो पीतांबर सोभा सुख अवगाहै मनु ? लास अंगूर लिए सुक लखि मुनि-मन मतवारे । मनुबन में घिरि दामिन लपटी नीलहि कंचन-पेली कंद-कली सी दंत-पात में बीरा रंग सुहायो । रस सिंगार में विरह-लला सु-तमालाहि पीत चमेली मनु दरक्यो दारिम राखि प्रमुदित नासा सुक उडि आयो । तापे कलित किंक्किनी कर्जात मनु रसना कविगन की आगम सूचित रेख लेख तल अपर आभ अरनायो हलकत असर मोती सुंदर अति जिय लगत सुहायो । बदनवार काम-मंदिर की विजय-घोस रति-रन की बरुनी नैन नपल पल भौहन सोभा के मन भौना । तारें फेंटा ललित लपेटा पंचरंग सोभित एसे सावन साँझ विविध रंग आदर दामिनि चूमत जैसे । मनुष जाला करि मनहुँ फंसाए खंजन के जुग छौना । उदर उदार सचिक्कन कोमल भयो सकल रस सोहै। प्रिया-रंग-माते अलसाने सरसाने रस-साने । लेत लपेट चिते चितवत नहि भरत प्रिया-भाष के भरे अधट मनु सोहत जुगल सजाने । प्रिया-ध्यान में मुंद रहन की खुले रहन की देखें। सब जग-मूल नाभिसर सोहत रूप-गांठ मनु बांधी कित रहन की याद परे नित जिनकी बान बिसेखे। ता पर रमत रसिक रोमावति रस-सरिता सर साधी खंजन मीन कमल नरगिस मृग सीप भौर सर साधे। जुर्वात साजे। मनु इनके गुन एकति करिके अंजन-गुन दे बाँधे । | सोभित उर जहँ अनुदिन नवल प्रिया-प्रतिजिव बिराच । वह जहँ परत दृष्टि इनकी धन गलियाँ प्रतियाँ मोहै । ता पर हार अपार परे मनिगन की अनगन माला । मानिक नील हीर से बरसत खिप्तत कंज से सोहैं। मनु इन प्रन बाद राख्यो ब्रज मैं कहर चहूँ दिसि डारी । सब पर सोहत गुजमान बनमाल सहित लम्बी। वहाँ पर कतलाम करें मनु अनुराग सहित सगरे रस रहे हरि-गल प्रवललंबी। प्रिया-रूप लखि रीभि मनहुँ अवनन सौ कहन गुन शाए । | मुक्तपति सोभित अति सुंदर कौस्तुभ-पदिक बिराजै । तिनहीं के प्रतिषिव मकर जुग कुंडल करन सोहाए । प्यारी मन को सरस सिंहासन छन्न मनहुँछवि छाजै । मानिनि-मान प्रतिव्रत लिय को मुनि-मन ज्ञान-गहरे । मुक्त भए? रस के लोभी-जन हरि-गर लपटाने । सोभा सब उपमानन की यह अदि बदिक नित चूरै पुन्य गोप-पद पाइ ओप-बुत चोप भरे सरसानो । नचल चपल चार अनियारे फरकत सुधिर रहे ना । ति निरचय समुदव सय नव जोबनधारी । । मधु मुकुल १२५