पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१६७

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होड़ा-होड़ी उौड़ रहे सब कवि पें नहिं कहि जाई । पुनि पुनि पढ़ि पुनि सुनि अनुभव सोभा फैलत रस बरसत सो उमगत सी तरुनाई। करि लहियो रस अधिकाई ।। 'पसरत तेज लुनाई लहकति उपर्जात सी छबिताई। विषय-विषित ज्ञान-करम मैं परे स्वर्ग सुख लोभे । जितो जगत में रूप होत सब जाकै तनिक बिलोकें। ते या रसहि परसिह नाहिन निज अभिमान न सोभे । ताकी सोभा को कहि पावे रहत रसन कवि रोके । केबल श्रीबल्लभ-पद-किंकर 'हरीचंद' से दासा । प्रानपिया रिझवार पास मुख चितवत ही रहि जाहीं । रहिह यह रस-सने सदा माँगत बरसाने बासा ।४८ हवै बलिहार प्रान मन वारत छिन-छिन अति ललचाहीं । होली लिए रहत रूख भौर निवारत इक टक बदन निहारें । फागुन के दिन चार, री गोरी खेल लौ होरी । तनिक हँसन बोलनि चितर्वान 4 अपुनो सरबस वार । फिर कित तू औ कहाँ यह औसर क्यौं ठानत यह आर । सखी सहस जि नित-नित जाके गोहन लागे डोलें । जोबर रुप नदी बहती सम यह जिय माँझ बिचार । हँसत प्रिया के हसे प्रान-प्यारी के बोले बोले । 'हरीचंद' गर लगु पीतम के कस होरी त्यौहार ।४९ गुन गाबत ले पान खवावत दावन रहत उठाएँ । श्याम पिया बिनु होरी के दिनन में मुख चूमत माला सुरझावत दोउ कर लेत बलाएँ। जिय की साध मेरी कौन पुजावै । चुटकि देत लिहार कहत हैं बोलान चलान सराहैं । गाइ बजाइ रिझाइ सबहि बिधि अपने को धन-धन करि मानत प्यारी-प्रेम उमाहे। कौन मुजन भरि कंठ लगावै जुगल परस्पर रंगे प्रेम-रंग होरी खेलि न जाने । गाल गुलाल लगाइ लपाट गर. रहत दगनही मैं अरुझाने यहि को सरबस मार्ने । कौन काम की कसक मिटावें। प्रिया मित लाख चलत कज को मंधर गति अति मोहैं । 'हरीचंद' मुख चूमि बार बहु. मरगजे बसन माल कम्हिलानी बिथुरे कच मन मोहैं । फिर चूमन कों को ललचावै ।५० हाथ-हाथ पै दिये एक रंग अरुन भए दोउ राजै । लखि बलिहार होत सखिजन सब सरस आरती साजै । प्रान-पिया बिनु प्रान लेन कों, अक गावत इक तार बजावत इक कुसुमन झरि लाई । फिर होरी सिर पर घहरानी । इक तृन तोरत इक पद परसत इक लखि रहत लुभाई । गावन लोग लगे इत उत सब, बाजत बेनु मंद मधुरे सुर गावत कछु-कड़ प्यारी । सुनि सुनि फिर हो चली मैं दिवानी आवत चले कृज रस-भीने श्यामा श्री गिरधारी । फिर फूले टेसू सरसों मिलि हि बिधि खेल होत नितही नित बृदाबन बि छायो । फिर कोइल कुहकत बौरानी । सदा बसंत रहत उहँ हाजिर कुसुमित फलित सोहायो । 'हरीचंद' फिर मदन-जोर भयो जप सकल दिन अति छबि बरसत वृंदा-बिपिन अपारा का मैं करों विहिन अकुलानी ।५१ तऊ सुखद सब सों निरभय यह होरी रंग बिहारा । नित-नित होरी रहैं मनावत याही ते ब्रजनारी । भिभौटी बिहरत कल की संक छौँडकै जामै गिरिवरधारी । सो होरी-रस परम गुप्त है अनुभवह नहिं आवै । रसमसी सरस रंगीली अँखियाँ मद सों भरी शिब शुक सों बिरलो कोउ-कोऊ कळू पावै तो पावै । Kाँद मुदि खुलत छकी आलस सों दरि दुरि जात ढरी । पै श्रीबल्लभ-चरन-सरन जो होय सोई कछु जाने । झूमत झुकत रंग निचुरत मनु मीन मंजीठ परी । जो यह जानै सो फिर जग मैं और नहीं उर आने । 'हरीचद' पिय छकत लखत ही सबहि भाँति निखरी ।५२ बिनु श्रीबल्लभ-कृपा-कोर यह निरखेड नहिं सूझै । जिमि गंवार मनि हाथ लेइ पै ताको मोल न बूझै । प्यारी तेरी भौहें जात चढ़ी । श्रीबल्लभ-पद-रज-प्रताप सों यह लीला कहि गाई । आलस बस हवे चंचलता तजि बाँकेपनहि मदीं । मनि-सम पोहि-पोहि अति रुचि सों माला रुचिर बनाई | झुकि झूमत सरसानी अँखियाँ मनु रस-सिंधु कढी । रसिकन की सरवस्व परम निधि बल्लभियन की जानौ । 'हरीचंद' अधखुली रसीली कानन जात बढ़ी ।५३ जुगल अनन्य जनन की तौ यह मूरि सजीवन मानौ । पूरबी एहि कुरसिक-जन हाथ न दीजो रहियौ सीस चढ़ाई । नैन फकीरिनि हो रामा अपने सैयाँ के कारनवाँ । 1 1 मधु मुकुल १२७