पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७

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MOST लाख पौण्ड की राशि दर्ज की गयी । १८५७ से १८६० के बीच घरेलू ऋण के रुप में ३ करोड़ पौंड की राशि अंकित की गयी और इसमें तेजी से वृद्धि हुई, जबकि ब्रिटिश राजनेताओं को मितव्ययिता के लिए भारतीय हिसाब-किताब में विवेकपूर्ण जोड़तोड़ के जरिए वित्तीय मामले में कुशल होने के लिए ख्याति मिली ।" (एल. एच. जेक्स -"दि माइग्रेशन आफ ब्रिटिश कैपिटल' पृष्ठ ૨૨૩). परिणाम स्पष्ट था, टैक्स बढ़ता चला गया । अकाल के बावजूद लगान में बढ़ोत्तरी हुई। इसके विरोध में उठे स्वर का गला घोट देने के लिए सन् १८७८ में बर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट आया । दूसरी ओर सामाजिक स्थिति इससे भी विषम थी । धार्मिक असहिष्णुता और भी कठोर हो गयी। विदेश यात्रा करनो पर धर्म समुद्री पानी में नमक की पुतली की तरह गलने लगा । विधवा विवाह का वर्जन और बाल विवाह तथा बेमेल विवाह पारिवारिक संतुलन के लिए अभिशाप हो गया । धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक मत-मतान्तरों का प्रचार और उनका खण्डन-मण्डन ही प्रधान हो गया । इस विपत्ति और रूढ़िग्रस्त सामाजिक स्थिति के साथ ही भारतेन्दु जी की वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्थिति पर भी एक नजर डाले बिना भारतेन्दु के मूल्यांकन के प्रति न्याय नहीं होगा । भारतेन्दु जी उस सेठ अमीचन्द की पांचवी पीढ़ी में पैदा हुए थे, जिसने अपनी सम्पत्ति और बदि का इस्तेमाल बंगाल में अंग्रेजों का पैर जमाने के लिए किया था। उसने देशद्रोह के पैसे से अपनी तिजोरियाँ भरी, किन्तु क्लाइव ऐसे धूर्त ने अंत में उन्हें निराश ही किया । फिर भी अंग्रेज भारतेन्दु के परिवार पर भरोसा करते थे । १८५७ के विद्रोह के समय बनारस रेजीडेंसी का बहुत सा सामान भारतेन्दु के पिता बाबू गोपाल चन्द्र के पास अंग्रेजों ने सुरक्षा की दृष्टि से रखा था। ऐसे में भारतेन्दु का परिवार अंग्रेजों का कृपापात्र भी था और विश्वासपात्र भी। भारतेन्दु की विषम स्थिति थी, पारिवारिक स्तर पर वें "क्राउन" के विश्वास पात्र थे । परम वैष्णव कभी विश्वासघाती नहीं हो सकता । उनकी नैतिकता क्राउन के समक्ष नतमस्तक थी, पर वे देख रहे थे कि अंग्रेज देश के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। यह स्थिति भी उनके लिए पीडाजनक थी। भारतेन्दु को दोनों परिस्थितियों से जूझना पड़ा। उनके सम्पूर्ण कर्तृत्व को सरकस के खिलाड़ी की तरह सन्तुलन की कसी हुई डोर पर चलना पड़ा । एक साथ ही पे राजभक्त्ति और देशभक्ति दोनों का निर्वाह करते दिखायी पड़ते हैं । एक ही छन्द की पहली पक्ति में वे "क्राउन" के वफादार दिखायी पड़ते हैं तो दूसरी पंक्ति में देश की आर्थिक स्थिति उन्हें सताती है। अग्रेज राज सुख साज, सबै विधि भारी । पै धन विदेश चलि जात, यहै है ख्वारी । महारानी विक्टोरिया के पौत्र प्रिंस फ्रेडरिक के भारत आगमन पर जो कविता उन्होंने लिखी थी वह अंग्रेजों के प्रति वफादारी से सराबोर जरुर है, किन्तु राष्ट्र की पीड़ा और छटपटाहट की भी उसमें ध्वनि है। "दृष्टि नृपति बलदल दली दीना भारतभूमि लहि है आज अनंद अति तुव पद पंकज चूमि । सांचहु भारत में बढ़यो अचरज सहित अनन्द निरखत पश्चिम में उदित आजु अपूरब चन्द । जैसे आतप तपित को छाया सुखद गुनात । जवन राज के अन्त तुव आगम तिमि दरसात पंद्रह