पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७१

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Club छोडि कुटी बाहर हवै बैठे ए दोउ शोभाशाली । नहिं गंगा मृग-बरम नहीं काट नहि विभूति सिर राजै । बसंत नाहि चंद केवल क नागिन लटकत सिर पर छाजै । देखह लाह रितुराजहि उपवन फूली चार चमेली । तुम बड़भागी भक्त लाल चाल सेवन बहुत विधि कीजै । लांट रही सहकारन सो बहु मधुर माधवी-बेली । 'हरीचंद' ऐसी भामिनि को काहे रूसन दीजै ।७३ फूले वर बसत बन बन मैं कहुँ मालती नवेली । ता पैं मदमाते से मधुकर गूंजत मधु-रस-रेली । संस्कृत राग बसंत मदन महोत्सव आजु चलौ पिय मदन-मोहन सों मेंटे। हरिरिह बिलासति सखि ऋतुराजे । चोआ चंदन अगर अरगजा पिय के अंग लपेटें । मदनमहोस्सव वेषविभूषित वल्लवरर्माणसमाजे । बहुत दिनन की साध पुजावै सुख को रास समेटें । 'हरीचंद' हिय लाइ प्रानांप्रय काम-कसक सब मेटें ।७६ प्रकटित वर्षावधि हृदयाहित युर्वातसहविकारे । स्वावेशावृतमत्तीकृत नरलोक-मयापहमारे । मेरे जिय की आस पुजाउ पियरया होरी खेलन आओ । मुकलिता मलितपाटलगण शोभितोपवनदेशे । फिर दुरलभ हवैहै फागुन दिन आउ गरे लाग जाओ । शकनपंडरीकृत सुविवाहार्थित सिद्धार्थकवेशे । गाइ बजाइ रिभाइ रंग करि अबिर गुलाल उड़ाओ । त्रिविधिपवन-पूरित पराग पटलाधमधुपझंकारे । 'हरीचंद' दुख मेटि काम को घर तेहबार मनाओ ।७७ आम्र-मंजरीवेष-विभूषित-तिसहचरी-विहारे । होरी नाहक खेलू मैं बन में पिया बिनु होरी लगी मेरे मन में कृजित केकालि कलकंठप्रतिवनिपूरित तीरे । सूनो जगत दिखाई श्याम-बिनु बिरह-बिथा बढ़ी तन में । प्रकटित हृदयगतानुराग कमलच्छलयमुनानीरे । होरी नाहक खेलू मैं बन में पिया बिनु होरी लगी मेरे मन में पथिकबधूबधप्रायश्चित्तालतनु-दग्धपलाशे । काम कठोर दवारि लगाई जिय दहकत छन छन में । कान्तविरहपीतिमापीत वासन्ती कुसुमविकाशे । 'हरीचंद बिन बिकल बिहिन बिलपति बालेपन में । रूपगभरहसितमालतीर्शितदन्तकदम्बे ! होरी नाहक खेलू मैं बन में पिया बिनु होरी लगी मेरे कामविकाराञ्चितलातका-कृत वरसहकारालम्बे । मृगमदकश्मीरागुरुचन्दन -चर्चित युवति-समूहे । सुरललनावाछिविहारलोकत्रयसुकृतद्रूहे बन मैं आगि लगी है फूले देख पलासु । श्री वृषभानु-नन्दिनीमोविनोदामोदविताने । कैसे बचि है बाल बियोगिनि देखि बसंत-बिलास । कविवर गिरिधिरदास-तनूभव 'हरिश्चंद्र -कृत चलत पौन ले फूल-बास होत काम परकास । गाने १७४ | 'हरीचंद बिन श्याम मनोहर बिहिन लेत उसास ९ बसंत श्री बल्लभ प्रभु बल्लभि अन-बिन तुम्हें कहा कोउ जाने हो चहूँ दिसि धूम मची है हो हो होरी सुनाय । निज निज सचि अनुसारहि सब ही कछ को कल अनुमाने हो | जित देखो तित एक यहै धुनि जगत गयौ बौराय । करमठ तिरत कर्म-प्रवर्तक जज्ञ-पुरुष कहि भाखै हो । | उड़त गुलाल चलत पिचकारी बाजत डफ घहराय । ज्ञानी भाष्यकार आतम-रत विषय-बिरत अभिलाखै हो । | 'हरीचंद' माते नर नारी गावत लाज गंवाय ।८० मरजादा-रत मानि, अचारज हरि-पर-रत सिर नावै हो । गुप्त परम रस अमृत प्रेम वपु नित्य बिहार बिहारी हो । नित नित होरी ब्रज में रहौ । गो-गोपी-गोकुल-प्रिय सुंदर रास रमत गिरिधारी हो । | बिहरत हरि सँग ब्रज-जुवती-गन सदा अनँद लहौ । प्रगटत निज जन मैं निज लीला आपुहि द्विज बपु लीन्हो हो | प्रफुलित फलित रहो वृंदाबन मधुप कृष्ण-गुन कहौ । 'हरीचंद बिनु निज पद-सेवक औरत नाहीं चीन्हो हो 'हरीचंद' नित सरस सुधामय प्रेम-प्रवाह बहौ ।८१ मन में ७८ ! मधु मुकुल १३१