पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७२

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राग-संग्रह "हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका, मोहन-चन्द्रिका' में सन १८८० में प्रकाशित ग्रीष्म ऋतु, राग-संग्रह जल-बिहार, सारंग आजु हरि बिहरत जमुना-तीर ।धo श्यामा संग रंग भरि सोहत पहिने झीने चीर । प्रथम समागम सकचत प्यारी जब परसत बलबीर । उघरत अंग भनि जल बसनन लाजि भजत तब तीर । धीर समी सोहायो लागत ले सोई धीर समीर । 'हरीचंद' संगम-गुन गावत छबि लाख धरत न धीर ।१ ठुमरी अठिलात सँवरिया, मद ते भरी ।5o काट कार्यान सिर मुकुट बिराजत काँधे पर सोहै पटुका लहरिया । पहुँची बाजू बनमाला अरु अँगुरिन अंगुरिन सोहें मुंदरिया । 'हरीचंद' मेरे मन बसो सोइ हरि-राधा सोहै जाकी नगरिया ।२ सारंग एरी फुहारन के दोउ कौतुक में उरझाने । धरत फूल फल नीर धार पर देखत रहत लुभाने । कबहुँक चकई चलत चपल अध-ऊरध बह गति ठाने । 'हरीचंद' रिझवत सब सखि मिलि नवजल-कल वहाने ।४ ये युगल दोउ बैठे हो शीतल छाँह । सखी ठाढ़ी चारों ओर फूलों मन माह । तिन बिच प्यारी पिया दिये गल बाँह ।५ बिहार, बिहाग आजु दोउ बिहरत कंजर कंत । श्यामा-श्याम सरस रंग बाढ़े सुख को लहत न अंत । ज्यों ज्यों निसि भीनत रंग बाढ़त होत सुरत की कंत । हारत कोउ न अभिरे दोऊ मदन-समर-सामंत । तहाँ न जाय सकत सखि-गनहूँ जहाँ कामिनी-कत । 'हरीचंद' श्री बल्लभ-पद-बल ताहि अनुभवत संत ।६ श्री नृसिंह चतुर्दशी-बधाई, सारंग आजु अपमान अति ही निरखि भक्त को । बैकुंठ बन सिंह बहुत कोप्यो । पर्दाक कर भूमि पै झकि सिर केश रद चाभि ओंठन तेज गगन लोप्यो । खंभको फार चिक्कारि केरि-नाद गर्भिनी-गर्भ गरजन गिरायो । सटा फटकारि कै नछत्रगन नभहिं फेंक ईत सी उतहि क्रोध छायो । गोवर्धनपूजा, बिलावल आजु बन उमगे फिरत अहीर । हेरी देन बदत नहिं काह देखियत जित तित भीर । इक गावत इक ताल बजावत एक बनावत चीर । एक नाचत इक गाइ खिलावत एक उड़ावत छीर । हमरो देव गोवर्द्धन पर्वत सुंदर श्याम शरीर । कहा करेगा इंद्र बापुरो जा बस केवल नीर । सात दिवस गिरि कर र राख्यो बाम भुजा बलबीर । 'हरीचंद' जीत्यो मेरे मोहन हारयौ इंद्र अधीर ।३ भारतेन्दु समग्र १३२