पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७५

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देवि-पिनी देवी चू ते प्रगट भये श्री गिरिवरधारी। निरीख नयन आनंद सिथिल भे 'हरीचंद' बलिहारी ।१६ बाल-लीला, असावरी आजु लख्यौ आँगन में खेलत जसुदा जी को बारो री । पीत झलिया तनक नौतनी मन हरि लेत दुलारोरी । अति सुकुमार चंद्र से मुख पै तनक डिठौना दीनी री । मानहुँ श्याम कमल पै इक अलि बैठो है रंग-भीनो री । उर बधनहा बिराजत सखि री उपमा नहिं कहि आवैरी । मन फूली अगस्त की कलिका सोभा अतिहि बढ़ावैरी । छोटी छोटी सीस लुरिया भ्रमरालि जनु आई री । तैसी तनिक कुल्हइया ता पै देखत अति सुखदाई री । छूद्रघटिका कोट में सोहत सोभा परम रसाला री । मनहूँ भवन सुंदरता को लास बाँधी बंदन-माला री । पीत भंगा अति तन पै राजत उपमा यह बनि आई री । मनु घन में दामिनि लपटानी छबि क बरनि न जाई री । कोटि काम अभिराम रूप लखि अपनो तन मन वारैरी । 'हरीचंद' बृजचंद-चरन-रज लेत बलैया हारेरी ।१७ दान-लीला, टोड़ी ऐसी नहिं कीजै लाल. देखत सब बृज की बाल, काहे हरि गये आज बहुतहि इतराई । सूधे क्यों न दान लेव. अँचरा मेरो छड़ि देव, जामें मेरी लाज रहै करो सो उपाई । जानत बृज प्रीति सबै, औरह हँसँगे अबै. गोकुल के लोग होत बड़ेई चवाई । 'हरीचंद' गुप्त प्रीत, बरसत अति रस की रीति नेकह जो जानै कोउ प्रकटत रस जाई ।१८ मकर संक्रांति, टोड़ी प्रबोधिनी, यथा कुंजन मंगलचार सखी री। थापे दीने कलस बधाये तोरन बाँधी द्वार । गायत सबै सोहग छबीली मिलि सब बृज की बाम । बन्ना नि आयो नंद-नंदन मोहन कोटिक काम । रंग-रंगीली घोड़ी ढ़ि के सिहरो सोहत सीस । देत असीस सासुरे की जब जीवो कोटि बरीस । बन्ना बहू पास बैठारी जोरि गाँठ इक साथ । 'हरीचंद' को देत बधाई दुलहिन अपने हाथ ।२१ दीनता, यथा-सचि गुन-गुन बिट्ठल के कह लगि कोउ गावै । अमित महिम लघु बुद्धि सों कछु कहत न आवै । देवी-जन अपने किये कलि जीव उवारै । माया-तिमिर मिटाय के खल कोटि उधारै । अंगीकृत जाको कियो ताको नहिं त्याग्यो । अपराधहि मान्यो नहीं भक्तन अनुराग्यो । सरन परयो वय ताप को मेट्यौ छन माहीं । 'हरीचंद' की गहि भुजा यामें सक नाहीं ।२२ बिहाग गावत गोपी कोकिल-बानी । श्रीबृषभानुराय से राजा कीरति सी जाकी पटरानी । गावत सारद नारद सुक मुनि सनकादिक ऋषि जानी । गावत चारिउ बेद शास्त्र षट् कहि कहि अकथ कहानी । गावत गुन अज व्यासादिक शिव गीत परम रस-सानी । मन क्रम बचन दास चरनन की गावत 'हरीचंद' सुखदानी ।२३ दान-लीला, सारंग ग्वालिन दै किन गोरस दान । करु न पुन्य यह गोबर्धन गिरि तीरथ सो बढि मान । गहन चिकुर मुख पूरन पै छाया सम लख्ख आन । बड़ो परब तुव भाग मिल्यो है करु न बिलम्ब सुजान । करत दोउ यहि हित खिचरी दान । जामें सदा मिले रहैं ऐसेहिं गौर-श्याम सुख-खान । चित्र बस्त्र धरि परम नेह सों जोरि पान सों पान । हरीचंद' त्योहार मनावत सखि-जन वारत प्रान ।१९ | सिसुता परि प्रकट प्रति पद नव जोबन संधि-समान । ग्रीष्म ऋतु, सांरग केसर-खौर श्याम-सुदर-तन निरखत सब मन मोहै मनु तमाल मैं चंपक बेली लपटि रही अति सोहै। मनु घन में दामिनि लपटानी उपमा को कवि को है। 'हरीचंद' बन तें बनि आवत बृज-तिय मुख-छबि 1 'हरीचंद' कंचन-अंगन दै हरि सुपात्र पहिचान ।२४ अशीष, यथा-रुचि चिरजीवो यह जोरी जुग-जुग चिरजीवो यह जोरी । श्रीजसुदानंदन मनमोहन श्रीबृषभानु-किशोरी । नित-नित ब्याह नित्य ही मंगल नित-नित सुख अति होई श्री बूंदाबन-सुख-सागर को पार न पावे कोई। जो है ।२० राग संग्रह १३५