पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१७७

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Oy हसत अभय बरद परम प्रान के रखवारे । जो निसि-दिन श्री विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल ही मुख मा । शुंड दंड बाह मेलि कर्रान सँग सुगज कॉल 'हरीचंद' तिनके पद की रज हम अपने सिर राखें३८, करत हैं 'हरिचंद' निरखि हर्राष प्रानप्यारे ३२ बधाई, राग कान्हरा नित्य, विहाग जो पै श्री राधा रूप न धरती । जय श्री मोहन-प्रान-प्रिये ॥ध्रु० प्रम-पंथ जग प्रगट न होतो ब्रज-बनिता कहा करती। श्री वृष-भानु-नन्दिनी राधे ब्रज-कुल-तिलक त्रिये । पुष्टिमार्ग थापित को करतो ब्रज रहतो सब सूनो । जा पद-रज सिव अज बंदत नित ललचत रहत हिये । हरि-लीला काके संग करते मंडल होतो ऊनो । तिन हरि सँग विहरत निसंकनिसि-दिन गलबाह दिये । रास-मध्य को रमतो हरि सग रसिक सुकवि कह गाते। जा मुख-नंद-मरीच देखि सब ब्रज-नर-नारि जिये । 'हरीचंद' भाव के भय सो भनि किहिके सरनहि जाते ।३७ तिनकी जीवन-मूरि होइकै सहहि स्वबस किये । जय जय जय जय जय श्री राधा । इंद्रादिक दिगपति जाके डर बरतत रुखहि लिये । जब तें प्रगट भई बरसाने नासी जन के तन की बाधा । 'हरीचंद' सो मान जासु लखि सहजहि बहुत भिये ।३३ सब सखि आदित मन में अति चरन-कमल अवराधा । स्फुट, यथा-सचि 'हरीचंद' वृजचंद पिया को प्रेम-पंथ जिन साधा ।३८ श्री रामनौमी व दशहरा का कीर्तन, सारंग जुरे हैं झूठे ही सब लोग। जैसे स्वामी परिकर तैसे तैसो ही संयोग ।६० जति राम अभिराम छबि-धाम वे तो दीनानाथ कहाये कार इत उत क काज । पूरन-काम श्याम-बपुबाम सीता-विहारी । एक एक की लाख इन्होंने गाई तजि कै लाज । चंड कोदड - बल खंड-कृत दनुज-बल जुरे सिद्ध साधक ठगिया से बड़ो जाल फैलायो । अनुज-सह सहज सुभ रूपधारी । [इयो जिन्हें मिटायो तिनको जग सों नाम धरायो । रक्ष-कुल अनल बल प्रबल पर्जन्य सम आजु नाहिं तो कल या आसा ही में दीनहिं राख्यो । धन्य निज जन - पक्ष रक्षकारी । 'हरीचंद' मन लै निरमोहित श्वेत-कृष्ण नहिं भाष्यो ।३४ अवध-भूषन समर बिजित दूषन दीनता, देवगन्धार दुष्ट बिगत दूषन चतुर धर्मचारी । खर प्रखर अगिन लक दृढ़ दुर्ग जो पै श्री बल्लभ-सुत नहिं जान्यो । दा दलमलन वाहु मारीच-मारी । कहा भयो साधन अनेक मैं करिकै वृथा भुलान्यौ । वैश्नवन अनुज घट-श्रवन रावन-शमन बादि रसिकता अरु चतुराई यह जीवन जान्यो । शमन भय - दमन 'हरिचंद' वारी ।३९ मर्यो बूथा विषयारस लंपट कठिन कर्म में सान्यो । जगाने के पद सोइ पुनीत प्रीति जेहि इनसों बृथा बेद मथि छान्यो । 'हरीचंद' श्रीबिट्ठल बिन सब जगत झूठ करि मान्यो ।३५ जागो मेरे प्रान-पियारे। तथा, आसावरी बलि बलि गई दिखावो ससि-मुख उठो जगत उजियारे । जे जन अन्य आसरो तषि श्री बिट्ठलनाथ हि गावै । मेटहु बिरहु-ताप दरसन दै बोलहु मधुरे बैन । आलस भरे रैनि रंगराते खोलहु पंकज-नैन । ते बिन श्रम थोरेहि साधन में भव-सागर तरि जावै । मेरे सरबस जीवन माधव प्रात भयो बलि जागो। जिनके मात-पिता-गुरु बिट्ठल और कहूँ कोउ नाहीं । का अलसाय जभाइ मंद हँसि 'हरीचंद' गर लागो ।४० ते जन यह संसार-समुद्रहि बत्म-खुरन करि जाहीं । जिनके श्रवन कीरतन सुमिरन बिट्ठल ही को भावै । प्रबोधनी के पद, यथा-सचि ते जन जीवन-मुक्त कहावहिं मुख देखे अघ जावै । जिनके इष्ट सखा श्रीबिट्ठल और बात नहिं प्यारी । जागो मंगल-मूरति गोविंद बिनय करत सब देव । तिनके बस में सदा सर्वदा रहत गोबर्द्धन-धारी । तुव सोये सबही जन सोयो लखहु न अपनो मेव । जिन मन-काय-करम-बच सब बिधि श्रीबिट्ठल-पद पूजो | बंदी वेद खरे जस गावत अस्तुति करत जुहारी । ते कृत-कृत्य धन्य ते कलि में तिन सम और न दूजो । नारद सारद बीन बजावत जय जय बचन उचारी राग संग्रह १३७