पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८

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चांदी के पालने में मलने वाला भारतेन्दु का वचपन सामन्ती वातावरण में ही फूला फला था। कहते है कि उनके विवाह में कंए में चीनी घोलकर बारात का स्वागत किया गया था । बारात तीन मील लम्बी थी। ऐसी सम्पन्नता और सामन्ती वृत्ति राष्ट्रीय चेतना को समझने में कहीं भी भारतेन्दु के आड़े नहीं आयी । वैभव की दीवारें उनकी समझ को घेर नहीं पायी । आम आदमी से परिचित होने और देश दर्शन की लालसा उनकी बचपन से बनी रही । ग्यारह वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने देशाटन आरम्भ कर दिया था। चुनार, कानपुर, लखनऊ, सहारनपुर, हरिद्वार, अमृतसर, लाहौर, दिल्ली, आगरा आदि की उन्होंने आंखें खोलकर यात्राएं की थी। जन जीवन को उन्होंने करीब से देखा था । उनके यात्रा वर्णनों में ऐसा हंसमुख और प्रसन्न गद्य दिखायी देता है जो उनके मस्त लेकिन समजिद लखि बिसनाथ दिंग परेहिए जो घाव । ता कह मरहम सहस है तुव दरसन नरराव ।। इतना होने पर भी इसी स्वागत गान में वह पुलिस और अदालत को नहीं भूले । पहरु नहि कोउ लखि परै, होम अदालत बन्द । ऐसी निरुपद्रब करौ, राजकुवर सुख चन्द । उनकी राजभक्ति अंग्रेज और अंग्रेजियत का हर स्थिति में विरोध करती है। भीतर-भीतर सब रस चूसै, बाहर से तनमन धन मूसे । जाहिर बातन में अतितेज, क्यों सखि साजन, नहिं अंग्रेज ।

सब गुरुजन को बुरो बतावै, खिचड़ी अलग पकावै । भीतर तत्व न, झूठी तेजी, क्यों सखि सजिन नहि अंग्रेजी । अपने देश के अतीत पर उन्हें गर्व था । वे बड़े गौरव के साथ कहते है: - सबसे पहले जेहि ईश्वर धन बल दीनों । सबसे पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।। सबसे पहले जो रूप रंग रस भीनो । सबसे पहले विदया-फल जिन गहिलीनो ।। इस स्वर्णित अतीत के बाद जब उनकी देश भक्ति वर्तमान को देखती है तो वह तिलमिला उठती है- जो भारत जग में रहयो सबसे उत्तम देस ताही भारत में रहयों अब नहि सुख को लेस । उनकी देशभक्ति असहाय और निरुपाय होकर भगवान के चरणों में चली जाती है। सब विधि नासी भारत प्रजा, कहू न रहयौं अवलम्ब अब जागो-जागो करुनायतन फेर जागिहौ नाथ कब ? (२)