पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८०

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तेहि बंदत नित'हरीचंद' यह परंपरा मत की उचट 1६७ फूल्यो सो दुलह आजु फूल ही को साजेसाज प्रात समय उठतडि श्रीवश्लम यह मंगलमय लीवेनाम। कोटि विधन-यारन पंचानन सब विधिसमरथ परन काम

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work जाड़े मे सैन समय गाइबे के पद जित की तित रह खरी सखियाँ सब इटत भूजन अलिंगन दीनो । प्यारी को खोजत है पिय प्यारो। 'हरोचा' जब बहुत संभराये तब मिलि हि दीपान मैं झिलिमिलि फेलों बदन उजारो। क्योहं गमन मलाहन में कीनो ६१ नूपुर-धुनि सुनि जानि नखेती गहि ल्यायो पिय न्यारो । बिहाग तथा 'हरीचद' गर लाइ मनायो दोप-दान त्योहारो ।६८ प्यारी लाउन सकुची जात । बधाई ज्यो ज्यों रति प्रतिविष सामुहे आर्रास माह लाखात । प्रगटी सुदरता की खान । कहत लाख यहि दुर राखिये बल कार कर्षत गात । श्री बृषभानु राय के मांदन राधा परम सुजान । 'बरीचंद' रस बढ़त अधिक अति गावत गोपी गीत बधाई बाजत तूर निसान । ज्यों-ज्यों तीय लजात 160 अंबर देव फूल बरसाषत चढि दि विध्य विमान । संक्रांति, पधा-रुचि जाचक भये अजाचक सिगरे पाह विधि सनमान । 'हरीचंद' ब्रजचंद पिया की जोरी अति सुखदान ।६९ प्यारे इतही मकर मनाह । लाली खिचरी सुखर रोगी हम कह सुख उपजाबहु । ग्रीष्म ऋतु में, राग वृंदावनी सारंग बड़ो परब है भाजु श्याम घन कहूँ न चित चत्ताबहु । प्यारी मति डोले ऐसी धूप में । 'हरीचंद मिलि देहु महा सुख मेरी लगन पुजामहु ।६३ तेरे में तो वारी गई री। प्यारे जान देही अर कोटिन मकर करो नहिं ऑड़ों प्राणनाथ प्रजराज । जाके हेतु फिरत तू बन बन सो तोहि आहि घोले । तेरे मैं सो वारी गई री। मीन मेख विनु वात करत तुम कहूं मिथुन ललचाने । चलि किन कुज उसीर-महल तू करू पिय संग कलोले । धनि नि पिय तुम तुला नहि जो सपके घटन समाने करकत हिय बीटी सी बातें सौतिन सँग जो कोनी । 'हरीचंद मिलि ठीक दुपहरी सुरति अमृत रस घोले । तासों रा लाय हिये अब करि करि अधिक धोनी । तेरे में तो वारी गई री ७० तो वृषभानु राय की कन्या जी अब तुमहिं न खांडों बड़ी परथ यह पुन्य उदय मोहिं मिलि तुमसो' रंग माड़ों पिय मेरे अंकन सुरथ विराजी । दच्छिन होन देउँ नहि रुपहूँ करो लाश चतुराई । सुरंग जूनरि मालरि झूमत मोती-तर बहु सा 1 हरीचर' मेरे अयन बिराजो सदा ये बजराई ६४ अंचर व्यजन चलानि मनमोहन सषही विधि जिय मोहे । किंकिन कलाहु घटिका बाजनि चषर चिकुर चल सोहै । पिया सों खिचरी क्यों तू राखत । कहा मान करि पैठि रही है कटक बचन नाहि भाखत । | नेह-डोर-बत सेव- | कोक-कला कल चक्र चपलधर तुरंग उछाह लगाये । यह संक्रम सिचरी को जाली मानहि दुरि न राखत । करि 'हरीचंद पिच सों खिचरी सी मिलि अधर-सुधा-मधु भेट करोगी स्वेद 'डरीचंद' बलि बेगि पधारो जानि-सिरोमनि राई । प्यारी जू के तिल पर हो बलिहारी। नित्य, राग पट सब संश्चियन को डोठि डिठौना रति-रतिपति मद-हारी । श्याम सरूप बसत पनि सूछम सोह बरसावत प्यारी ऋष-नासन करुनानिधि दीनानाथ पतितपावन सुखधाम पपरंरा छप्प मोहन कोटि कोटि रति-काम । तेरे में तो पारी गई है। साजी मनुहार चालाये। द कुसुम बरसाई। क्यों रस नहि चाखत १६५ "हरोचर हार पोर-मिटावन एक यहे गुनकारी ।३६ | सुमिरन मात्र हरन जन-आरति रहिये इनकी सरन सदा चशि प्रथम नौमि गोपी पति-पद-पंकज असनारे । पनि शिष-नारद-व्यास बहुरि सुक मुनि मतवारे । विष्णु स्थामि पूनि वदि बिरुवमंगल पर बंदत । श्री बाल्म-भरनारविंद जुग नौमि अनंदत । श्री विठ्ठा तिनकी दोऊ विधि संतति जो अधशौ प्रगट विकि जैये हन कर बिनु दाम । 'हरीचंद निरभय इन चरननि छत्र-छांह कीजे विश्राम ७२ गरमी में सेहरे को पद, राग यथा-सचि भारतेन्दु समग्र १५०