पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८१

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1 फूल सी दुलही पाइ फुल्यो फूल्यो डोले । प्रिया करत कछु विनय लाल सुनि केसरी बन्यो है बागो मोनि की कोर लगो सहि न सकत जिय बिवस जात हिलि । फूल झरे जब वह मुख बोले। कहि बस अल 'हरिचंद' अंश पर | फूल को सिहरो सीस फूलन की मालकंठ दुरत अधर में अमर रहत रिलि १७७ फूले फूले नयन दोक लगे अनमोले । अगहन मे राजभोग समय, सारंग 'हरीचद' बलिहारी निज कर गिरिधारी बारो असि मेरो लाल सोह उठत प्रातकाल कली सी दुपहिया को पूंघट खोले ।७३ कहा तीर केसो चीर मूठही अंगराती । फूलहु को कैंगना नहीं छूटत कैसे हो बलबीर तू । चोरी लाइ छिनारो लावत जानि परी सब आज तुम्हारी नामहि के रनधीर जू । तुम ग्वालिन मद-माती। दूध पियानो जसुदा मैया जा दिन को सो आयो । इहि मिस नित उठि देखन आवत चौरि चोरि के माखन खायो सो कल कहाँ गंवायो । अपने मन क्यों नहिं समुमावति । तारी दै दै हंसी सधी सब आजु परी मोहिं जानी . यौवन के रस चूर फिरत सुनि के तिनकी बात बुलहिया धूंघट में मुसक्यानी । तुम घर घर में इतराती । कोटि वतन कोऊ करि हारो लगी लगन नहिं ट्रटै । 'हरीचंद' धरन जाहु, लालहि मति दोष लाहु. 'हरीचंद' यह प्रेम-डोलना को कैसे करि छटै 1७४ | कहत बात क्यों बनाइ कापै इठलाती ७८ फूल को सिंगार करत अपने हाथ प्यारो । विहार, केदारा फूलन की कशियन को आभरन संचारो। बैठे लाल जमुना जू के तट पर । पाटी पारि अपने हाथ बेनी गुथि बनाये । ग्रीष्म ऋतु जान अति सुख माना सीसफूल करनफूल ले ले पहिराये । मान संग सब गोपी चतुरतर। कंचुकि पहिरावत में चपलाई कडु कीनी । व्यवन चंवर दुरत चहुँ दिसि ते प्यारी मुसकाय आँखि नीची करि लोनी । सोभित सुभग नवल बर। किंकिन पहिराय मवा लहँगा पहिरायो 'हरीनंद' ब-बदन हरि की छवि लखि देख मुदित होत प्यारो मन-भायो । कोटि काम वारि गयो एक एक नख पर ७ि९ पायत पहिरावन को चित्त जबै कीनो । तथा, कलिंगड़ा प्रान-प्यारा सोचि चरन तब छिपाय लीनो । बीती निसि तिय सोवन दीजै यह ललिताले धीन . प्यारी को संकोच जानि प्यारे इमि भाख्यो । चौकि परे दोउ भोर जानि तव रसमसे नैननि आलस आयो मान समय कोटि बार इनहिं सीस राख्यौ । सोरे जानि धार उर के पिय करि मनुहार तियाहि सुनायो । पायल मग बाँध फूल-माला पहिराई । 'हरीचंद' संगम-सुख-शोभा अपने कर नंदलाल आरसी दिखाई। सो कैसे कहि जात सुनायो 100 प्यारी तप धाई पिया-कठहि लपटाई। रास को पद, मैरव 'हरीनंद' बार वार लखिके बलि जाई १७५ श्रृंदावन उज्जल बर जमुना-तट नंदलाल रास के पद | रहस रच्यो सरद जामिनी । | फिरि लीजै यह तान अहो पिय फिर लीजै वह तान । निरतत गोपाललाल सँग में ब्रज-बाल बनी। |नि नि पधप पममग गरि रिसा सा मोहन चतुरसुजान अद्भुत गति लेत कोक-कशित कामिनी । | उदित चंद्र निर्मल नभ-मंडल थकि गये देव-धिमान । लाग डाँट सुर-बधान गावत अचूक तान | कुनित किकिनी नूपुर बाजत झनझन शब्द महान । लतयेइ लतयेइ थेई गति अभिरामिनी । | मोहे शिव ब्रह्मादिक वहि निसि नाचत लखि भगवान । गोपिन संग श्याम सुंदर मंडल-मधि सोभित अति |'हरीचंद' राधा-मुख निरखत छुट्यो सुर-तिय मान ।७६ बिहरत बहु रूप मानों मेघ दामिनी । विहार, बिहाग थाक्यो नभ चंद देखि रैनि सिथिल भई लखि हरि गजपति संग गज-गामिनी । बैठे दोउ अपने सुख मिलि । ऊंचे महलन के चौबारे 'हरीचंद' सोभा लखि देव-मुनि नभ विचकित मानी हरि साथ सबे अज-भामिनी ।९१ सरद-चाँदनी चहुँ दिसि रही खिलि । राग संग्रह १४१ क पद-नच गोपिन सँग