पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

KARNE जोरी अधिषल सदा विराजो 'हरीचंद' बलिहारी १२० कौन गांप कह नाम तिहारो ठादी रह नेक गोरी तधा, आसावरी कित पशि जात तू बदन दुराए मेरो लाडिलो गोपाल माई साँपरो सलोना । एरी मति की भोरी। जाके हित लाई मैं सुरंग खिलोना । साँझ भई अब कहाँ जायगी छाँडो हठ वारने हो बार बार जाऊँ। नीकी है यह सांकरी खोरी। मुख देखि सालन को नैनन सिराऊं। वाहत जतन करि हारि ग्वालिनी ब्रज को जियारो मेरो छोटो सो लाला । जान दियो नहि तेहि घर ओरी । मानै मेरोई को ऐसो सुभ चाला । 'हरीचन्द' मिलि विहरत दोऊ तुम्हरे हित खोजू लाल दुलही इक छोटी । मिलि खेले लालन के रहे संग जोटी रैननि नन्दकुंवर श्री वृषभानुकिसोरी ।१६ 1 माखन मिसरी हौ' दैडौं चासो मेरे प्यारे । ग्रीष्म को पद, यथा-उचि छाँडो मचलाई लाल नंद के दुलारे । भोज भरे दोउ हौज किनारे हो तो संग लागी फिरों पलकह न त्यागों। बैठे करत प्रेम की बतियाँ। पालने झुलाऊं गीत गाऊँ अनुरागों । ग्रोषम ऋतु लखि सखिन बनायो बैं तो माता हूँ तेरी मेरी बात मानो। मंजु कुंच रचि पुहप-पतियाँ। 'हरीचद' बलिहारी आर नाहि ठानो ।११ शीतल पवन परसि जल-कन मिलि रथ-यात्रा, सारंग सीतल भई सरससी रतियाँ । "हरीचंद' अलसाने दोऊ मुरि मुरि मेरे मन-रथ चढ़ि पिय तुम आयो । विहसि राहत लगि हतियाँ ।९७ चास चक्र बुधि बल छल साहस लगन की डोर लगायो। चपल तुरंग मनोरथ बहु विधि निर्भय छत्र छपावो । राग, यथा-चि 'हरीचंद' गर खागि हमारे प्रेम-ध्वजा फहरायो ।१२ मोहन लाल के रस सानी । बधाई, यथा-चि तन की सुधि न भवन की बुधि का ओलत फिरत दिवानी । मंगलमय सब ब्रज-वासी लोग । उपरि कहत पिय गुन सब मंगलमय हरि जिन घर प्रकटे मिले अमंगल भव के सोग। ही से गायत कोकिल-बानी । मंगल ब्रज बूदाबन गोकुल मंगल माखन दधि पत भोग। विधुरी आशक सरकि रह्यो 'हरीचंद बल्लभ-पद मंगल गोपी-कृष्ण-संयोग ।१३ अंचल चंचल नखन लखानी । मान को पद, बिहाग पिय-रस-मत्त छकी आसव सी मेरी री मत कोड होउ असीठि । पिय के रूप लुभानी । | में उनकी वे मेरे रहिह सदा दिए मैं पीठ । पिय के ध्यान दि रही मैं मानिन वे मनावनहारे मेरी उनकी मिलि दीठि। शोचन अन्तरगति प्रगटानी । 'हरीचंद' मिलिहौं मैं उनसों लै मनुहार न नीठि १९४ उझकि ललकि चौकति भुज भरि भरि इमि सुख रहत भुलानी । नित्य, यथा-सचि मेरेई पौरि रहत ठादो टरत न टारे नंदराय जू को ढोटा । बैठति रोवति कहत कहानी। पाग रही भुव दरकि छबीली यामें बाँधो है मंजुल चोटा। 'हरीचन्द' इक रस हरि के रंग चितवत हैसि फिरि मो तन हेरत कर लै बेनु बजावत । दिन-निसि जात न जानी। धरि अधरन वह ललन छबीलो नाम हमारोह गायत । कर लै कमा फिरावत चहुँ दिसि मों तन दृष्टि न टारै । प्रेम-समुद तन-नाष हुबोयेहु प्रेम-ध्वजा फहरानी ।९८ 'हरीचंद' मन हरि लै हमरो हैसि हंसि पाग संवारे ।९५ विजय दशमी, मारू न देत मोहिं पूछत है तू को री। मान गढ़-संक पर विजय को मानिनी राग संग्रह १४३ निज मन हसत मौन मारग रोकि भयो ठाडो जान