पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१८६

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फूलन के कंगना कर बाँचे फूलनि मंडप छायो हो । 'हरीचंद' बलिहारी ।१२२ फूलनि चोली फूलनि सारी फूलनि लहँगा भायो हो । दीनता दुलहिन दुलहा गाँठि जोरि के एक पास बैठायो हो । श्री वल्लभ की सरि करै कौन । फूली फूली सब सखियन मिलि फूल्यो मंगल गयो हो । पूली जोरि देखि नयन सो 'हरीचंद' सुख पायो हो।११८ प्रगटे प्रभु गुविंद-मन-वाहक भक्त कारनै जौन । परम पतित तारन करुनामय रसनिधि बुधता-भौन । मकर-संक्रांति टोड़ी 'हरीचंद' जो इनहिं भजत नहिं महा अभागे तीन ।१२३ सुखद अति खिचरी को त्योहार । श्री वल्लभ प्रभु मेरे सरबस । मिलि बैठे दोउ कुंज सखी री नीके नयन निहार । पचौ बृथा करि जोग जज्ञ कोउ पहिरि छींट बागो अति सुंदर ओढ़े सुखद रजाई । हम को तो इक इहै परम रस । सिसिर प्रवेश दिखावत गावत तान गान सुखदाई । हमरे मात पिता पति बंधू सखी सबै मिलि नेम पुजावत करत जुगल की सेवा । हरि गुरु मित्र धरम धन कुल जस । ताती खिचरी भोग लगावत भेंट करत बहु मेवा । 'हरीचंद' एकहि श्री बल्लभ करत दान तिल गौर श्याम दोउ हँसि-हँसि पीतम प्यारी। तजि सब ध्यान भये इनके बस ।१२४ 'हरीचद' निज रीफि प्रान-धन डारत छिन-छिन वारी ।११९ श्री बड़े गिरिधर जी को पद श्री गिरिधरजी की बधाई श्री विठ्ठल-सुत गुननिधान श्री रुक्मिनि जीवन-प्रान बन्दे श्री गिरधर प्रभु षटगुन सम्पन्न धीर । सदा तुम मायावाद निवारेउ । अति ही रिझवार रसिक सकल कलागुन-प्रवीन जब जब प्रबल भयो मिथ्या मत तब तब प्रकटि बिदारेउ । बंधुन सिर छत्रछाँह मेटत जन-पीर । प्रथमहि होय विष्णु स्वामी प्रभु यह मारग बिस्तारेउ । सेवा-रस परस पात्र पडित-जन मंडित कर फिरि श्री बल्लभ वे अगिनि काठ खडित कृत मायामति छडित भव-पीर । कटु माया मत छिन जारेउ । श्री रानी प्राननाथ गावत श्रुति बिसद गाथ अब के कासी लखि असुरासी अधरन तासु बिचारेउ । 'हरीचंद' हाथ माय धरत बलबीर ।१२५ कृष्णावति ते श्री गोपाल-गृह जदु-कुल द्विज अवतारेउ । श्रीरघुनाथजी को पद नाम जगतगुरु सुनत श्रवन-पुट पावन अमृत पारेउ । कियो ग्रंथ बहु घर थिर थाप्यो माया-वाद बिदारेउ । श्रीबिट्ठल-नंदन जग-बन्दन जय जय श्री रघुनाथ । श्री गिरिधर गिरिधर हवै प्रकटे पुष्प-पंथ गिरि धारेउ। जानकि-रमन समन जन अघ सत पितु-पद रजगुन गाथ। प्रबल प्रवाह इन्द्र-धारा सों निज ब्रज लोग उबारेउ । सेवा रोचक मोचक भव-रुज कृत बल्लभी सनाथ । काशी में गोकुल करि दीन्हो श्रुति-रहस्य उच्चारेउ । 'हरीचंद' अनुभव बियोग कृत सदा सहायक साथ।१२६ 'हरीचंद' को जानि आपनो करूना करि निसतारेउ।१२० श्रीगोपीनाथजी को पद अशिष, यथा-सचि श्री बल्लभ-सुत प्रथम प्रगट लीला रस भाव सदा व्रज सुबस बसो बरसानो । गुप्त जय जय श्री गोपीनाथ भक्तन सुखदाई । जहँ प्रगटी रस की निधि राधे बाजत प्रगट निसानो । गावत गुन बेद चार तऊ नहीं पावें पार जुग जुग अविचल राज रजो दोउ रावलि अरु महरानो। महिमा कोउ कहि न सकत गोप-वंश-राई। 'हरीचद' के सीस रहौ नित नील पीत को बानो ।१२१ पुष्टि पथ करन-काथ प्रगटे हैं भूमि आज बिहार, बिहाग गावत सब ब्रज-जन मिलि आनंद-बधाई। 'हरीचंद' जस गावे बहुत बधाई पावै सुंदर सेजन बैठे प्रीतम-प्यारी । देखत त्रैलोक सब बलि बलि जाई ।१२७ मिलमिलात दीप-ज्योति रंग-भरे सँग दोऊ सोवत ऊंची अटारी । श्रीबल्लभ गृह महामंगल भयो प्रकट भये श्री गोपीनाथ । रिझवत हिलि-मिलि करि रस-बतियाँ मार्यादा श्रुति रूप रमन हित संकर्षन जन कियो सनाथ । फैली बदन उजियारी। अक्षर ब्रह्म रूप सुभ सोहत अनुज धाम जगधाम स्वरूप। दीप सों परस्पर मुख अवलोकत जोग ज्ञान कर्मादिक मारग थापन हित प्रगटे द्विज भूप भारतेन्दु समग्र १४६