पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१९

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- S400* जागरुक व्यक्तित्व का परिचायक है । काशी नरेश के साथ वैद्ययनाथ धाम की यात्रा की एक छवि देखिए: "श्रीकाशी नरेश के साथ वैद्यनाथ को चले । चारो ओर हरी घास का ऊपर रंग- रंग का बादल, बगसर के आगे बड़ा भारी मैदान पर सब्ब काशनी मखबल से चढ़ा हुआ । सांझ होने से बादल के छोटे-छोटे टुकड़े लाल पीले नीले बनारस कालेज की रंगीन शीशे की खिड़कियों के समान था . . . पटना पहुंचते पहुंचते पानी बरसने लगा बस पृथ्वी आकाश सब नीर ब्रहममय हो गये । इस धूमधाम में भी रेल कृष्णाभिसारिका-सी अपनी धुन में चली ही जाती थी । सच है, सावन की नदी और दृढ़ प्रतिज्ञ उपयोगी और जिनका मन प्रीतम के पास है वे कहीं रुकते हैं? राह में बाजे पेड़ो में इतने जुगनू थे कि पेड़ शवेचिरागां बन रहे थे । . . . सेकेण्ड क्लास की गाड़ी ऐसी टूटी फूटी कि जैसी हिन्दुओं की किस्मत और हिम्मत । दानापुर से दो चार नीम अग्रेज "लेडी नहीं सिफ लैड" मिले, उनको बेतकल्लुफ उसमें बैठा दिया था । सचमुच अब तो तपस्या करके गोरी कोख से जन्म लें तो संसार में सुख मिले । खैर इसी सात पांच में रात कट गयी । बादल के परदों को फाड़-फाड़ कर उषादेवी ने ताकझाक आरम्भ कर दी । परलोक गत सज्जनों की कीर्ति की भाति सूर्यनारायण का प्रकाश पिशून मेघों के बागाडम्बर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा । प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ । ठंडी ठंडी हवा मन की काली को खिलाती हुई बहने लगी। मुझे तो लगता है कि कविता की अपेक्षा भारतेन्दु के गद्य में उनके व्यक्तित्व की रेखाएं अधिक उभरी है। उनकी सैलानी मस्त तबीयत तथा गहरी मानवता और प्रकृति प्रेम के साथ ही उनके फक्कड़ मिजाज का बनारसी अंदाज जितना गद्य में दिखायी देता है । उस सीमा तक कविता में नहीं । जनकपुर की यात्रा के समय उनका साथ अंग्रेजों से हो गया । उस समय अंग्रेज हौवा समझे जाते थे, पर भारतेन्दु बाबू कब दबने वाले ? वे लिखते हैं। "राह में रेल पे कुछ कष्ट हुआ, क्योंकि सैकेंड क्लास में तीन चार अंग्रेज थे । बस इसमें अकेला, "जिमि दसनन मह जीभ बिचारी," को कष्ट हुआ ही चाहे । जैसे उनको पान सुपारी की पचापच से नफरत वैसे ही, इधर चुरट के धूम से । मगर बाजे तो बड़े सभ्य और दिल्लगीबाज मिलते हैं । अब की बरसात में एक साहब सोये हुए थे, मैं भी था रात में पानी की बौछार भीतर आयी । साहब ने जानबूझकर पूछा, "यह पानी क्या आपने बहाया है । (पेशाब किया) (हेब यू मेड वाटर) मैंने कहा -मैंने नहीं भगवान ने (नाट आई बट गाड) भारतेन्दु की जिन्दादिली और दिलफेक मिजाज जैसा गद्य में उभरा है, वैसा पद्य में नहीं, सरयूपार की यात्रा का एक दिलचस्प वर्णन देखिए: - "बाहरे बस्ती। अगर यही बस्ती है तो उजाड़ किसे कहेंगे । बैसवारे के पुरुष सब पुरुष, सब भीम, सब अर्जुन, सब सूत पौराणिक सब बाजिद अली शाह -नई सभ्यता अभी उधर नहीं आई है । रूप कुछ ऐसा नहीं, पर स्त्रियाँ नेत्र नचाने में बड़ी चतुर । यहां के पुरुषों की रसिकता, मोटीचाल, सूरती और खड़ी मोछ में छिपी है और स्त्रियों की रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसे नथ में । मुझे उनके सब गीतों में -बोलो प्यारी सखियां सीताराम राम राम -यही अच्छा मालूम हुआ । बैलगाड़ी की डाक में बैठे सोचते थे कि काशी में रहते तो बहुत दिन हुए पर शिव आज ही हुए।"' सत्रह 2