पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१९१

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दिलों पर खाक उड़ती हे मगर मुंह पर सफाई है। ना जानो कैसे ऐसे टीठ लंगर के धोखे फद परी री ।२४ वर्ष पर तेरे आशिक के भला कब आह आई है। तरजीह-चंद दुखित धरनि लखि बरसि जल घनउ पसीजे आय।। 'चमक से वर्क के उस वर्क-वश की याद आई है। द्रवत न तुम घनस्याम क्यों नाम दयानिधि पाय : घुटा है बम घटी है जो घटा जब से ये खाई है। खुदा ने बुत तेरी पत्थर की बस छाती बनाई है। कौन सुने कासों कहों सुरति विसारी नाह । जौ धन बरसै समय सिर जो भरि जनम उदास । बाबदी जिय खेत हैं ए बदरा बदराह । तुलसी जाचक चातकहि तऊ तिहारी आस । बहुत इन जातिमों ने भाह अब आफत उठाई है। सिषा खंजर यहाँ का प्यास पानी से बुझाई है। अहो पथिक कहियो इति गिरधारी सो टेर । चातक तुलसी के मते स्वातिहु पिये न पानि । हग भर लाई राधिका अब पूडत ब्रज फेर प्रम-तृषा पाहत मली घटे घटेगी कानि । बचाओ जल्द इस सेलाप से प्यारे दुहाई है। शहीदों ने तेरे बस जान प्यासे ही गंवाई है। विहरत बीतत स्पाम संग सो पावस की रात । ऐसो पावस पाइइ पूर बसे ब्रजराइ । सो अन्न बीतत दुख करत रोअत पठरा खात । आइ भाइ हरिचंद' क्यों लेहु न कंठ लगाह । कहाँ तो वह करम । अब कहाँ इतनी रूखाई है। 'रसा' मंजूर मुझको तेरे कदमों तक रसाई है ।२५ विरह जरी लखि जोगनिनि कहे न उहि कह धार। राग मलार अरी आप भाजे भीतरे बरसत आबु अंगार । अन्दावन करो दोउ सुख-राज । नहीं जुगनूं यह बस आग पानी ने लगाई है। फिरो निसंक दिए गल-बहियाँ लीने सखी-समाव । लाल तिहारे विरह की लागी अगिन अपार । | बिहरो कुच कुछ तस तस तर पुलिन पुलिन सजिलाज। सरस बरसे नीर, मिटे मिटे न झर झमार प्रति छन नए सिंगार बनाओ सजी सकल सुख-साज । | बुभाने से है बढ़ती आग यह कैसी लगाई है। छिन छिन बदौ प्रेम प्रेमिन को पुरवहु सगरो काज । बन बागन पिक वटपरा तकि विरहिन मन मैन | हरीचंद' की रानी (श्री) राधे गोपराज महराज ।२६ कुही कुही कहि कडि उठे करि करि राते नैन । भीजते साँवरे संग गोरी । गजब र आवाज ने इन जालिमों के खाई है। अरस परस बालन रस मुली बांड बाँह में जोरी । पावस र धन अँधियार में रहयो भेद नहि आन कदम तरे ठाढ़े दोउ ओढ़े एकडि अरुन पिछोरी । राति योस जान्यो परे लखि चकई चकवान । चुआत रंग अंग यसन लपटि रहे भीजि भीजि दुहुँ ओरी। नही बरसात है यह इक कयामत सिर पर आई है। जल-कन नपत सगवगी अलकन करत जुगल चित-चोरी। पावक-भर ते मेह-झर वापक दुसह विसेसि । गायत हसत रिझाषत हिलि-मिशि पुनि-पुनि भरत अंकोरी। दहै देह वाके परस याहि इगनहीं देखि। बरसत घेरि परि घन उमंगे चपला चमक मचोरी । लगी है जिनकी लो तुमसे वस उनकी मौत आई है । बोलत मोर कोकिला तर पर पवन चलत भकमोरी। धुआं धरनि चहुँ व कोद। अति रस सहस बढ़यो बुदायन हरित भूमि तरू खोरी। जारत आवत जगत को पायस प्रथम पयोद । 'हरीचंद' छवि टरत न हग ते निरखि भोवती जोरी।२७ नही बिजली है। 'यह इक जग बादल ने लगाई है। परषा में कोउ मान करत येई चिरजीवी अमर निधरक फिरो कडाइ । छिन बिष्टुरे जिन के न इहि पायस आयु सिराइ । यह रितु पीतम-गर लागन की यहाँ तो जॉ-बलम है जबसे सावन की चढ़ाई है। वामा भामा कामिनी कहि बोलो प्रानेस तू रूसत कित होइ सयानी। देखू न केसी छह अंधियारी प्यारी करत लजात नहिं पावस चलत विदेस । बरसि रहयो रिमभिम लखु पानी । | भरता शरमाजो कुष्ठ तो जी में यह कैसी डिठाई है। 'हरीचंद' चशि मितु पीतम सों स्टत रटत रसना लटी लषा सूखिगे अंग । लूट न रति-सुख पिय-मन-मानी ।२८ तुलसी चाकत प्रेम को नित नूतन रूचि रंग। डरपावत मोरवा कृकि कि । बरखि परुख पाहन पयद पंख करो टुक टुक । पावस रितु बरसत का बादर पवन चलत है कि कि ।। अतुलसी परो न चाहिए चतुर चातकहि चूक । वर्षा विनोद १५२ धुरवा होहि न अलिया तू कित डोत सखी री अयानी।