पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१९२

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50F** पिय बिनु जानि अकेली मो कारज हवै है सिद्ध सुखाली ।३४० कह देत मदन तन कि फूकि । हमारी श्री राधा महारानी । 'हरीचंद' बिनु हरि कामिनि के. तीन लोक को ठाकुर जो है ताहू की ठकुरानी । उठत बिरह की हुकि हुकि ।२९ सब ब्रज की सिरताज लाडिली सखियन की सुखदानी । पछितात गुजरिया, घर में खरी । 'हरीचंद' स्वामिनि पिय अब लगि श्याम सुंदर नहि आए कामिनि परम कृपा की खानी ।३५ दुखदाइनि भइ रात अँधरिया । मलार खेमटा बैठत उठत सेज पर भामिनि पथिक की प्रीति को का परमान । पिय बिन मोरी सूनी अटरिया । रैन बसे इत भोर चले उठि मारि नैन को बान । 'हरीचंद' हरि के आवतही बसि गई ये काहू के भये न होयगे स्वारथ लोभी जान । मोरी उजरी नगरिया ।३० 'हरीचंद' इनके फंदन परि बृथा गवैये प्रान ।३६ दियो पिय प्यारा को चौंकाय । हिंडोरना आजु झकोरवा लेत । सुख सोये मिलि जुगल अटारिन अंग अंग लपटाय । झूलत श्यामा-श्याम रंग-भरे लपटि बढ़ावत हेत । इन घन गरजि बरसि बूंदन दिये काची नींद जगाय । बरसत घन तन काम जगावत गावत तारी देत । अलसाने नहि उठत सेज तें भीजि रहे अरुझाय । 'हरीचंद' अरुझे पिय प्यारी बीर सुरत-रन-खेत ।३७ 'हरीचंद' छपता ले कीनों क्योंहूँ बचन उपाय ।३१ परज डरत नहिं घन सों रति रस-माते । घेरि घेरि घन आए कुंज छाइ धाए हार्यो बरसि गरजि बहु भाँतिन टरै न बीर तहाँ ते । ऐसी या समय कोउ मान करै बाउरी । गिरवर अटा सुहावनि लागत बन दरसात जहाँ ते । देखि तो कुज की शोभा बोलि रहे मोर तहँई जुगल लपटि रस सोए नींद भरे अलसाते । कीर हरी भूमि भई संग चलि आउ री। रस-भीने आलस सों भीने भीने जल बरसाते । पावस रितु सबै नारी मिलैं पीतम सों औरहु गाढ़ अलिंगन करि के सोए सुखद सुहाते । तू ही अनोखी एती करत चवाउ री । भोर भयो नहिं गिनत सखी-गन लखि कै कछु सकुचाते । 'हरीचंद' बलिहारी मग देखै गिरधारी 'हरीचंद' घन दामिनि हारी जीति जुगल इतराते ।३२ उछु चलु प्यारी मति बात बहराउरी ३८ प्रीति तुव प्रीतम को प्रगटैयै । दोउ मिलि आजु हिंडोले झूलें । कैसे कै नाम प्रगट तुव लीजै कैसे कै बिथा सुनैयै । कंचन खंभ फूल सों बाँधे को जाने समुझै जग जिन सों खुलि के भरम गवैयै । शोभित सुभग कलिंदी-कूलें। प्रगट हाय करि नैनन जल भरि कैसे जगहि दिखैयै । कबहुँ न जानै प्रेम-रीति कोउ सुख सो बुरे कहैयै मुलवत चहुँ दिसि नवल नागरी सोभा को रतिहूँ नहिं तूलें। 'हरीचंद' पै भेद न कहियै भले ही मौन मरि जैये ।३३ गावत हँसत हँसाइ रिझावत पिय आजु झलक प्यारे की लखि के छबि लखि मन ही मन फूलैं। मो घर महा मंगल भयो अली। चलत चपल दृग कोर परसपर जद्यपि हौं गुरुजन के मेटत कठिन मदन की सूलें । नीके नहिं चितए बनमाली । 'हरीचंद' छबि-रासि पिया-पिय उठे कुंज सों मरगजे बागे दरसत ही जिय दुख उनमूलैं ।३९ जागे आवत रति-रन-साली । हौं भय सों सखियन के चितई राग देश लोचन भरि नहिं रोचन लाली । हिंडोरे कौन झूलै थारे लार । उनहूँ नैन कोर हँसि चितई तुम अटपटे धारी झूलन अटपटी हूँ तो घणी सुकुमार। मन ले गए ठगौरी घाली । तुम फूलौ थाने हूँ जू मुलाऊँ थारो चरित अपार । 'हरीचंद' भयो भोरहि मंगल 'हरीचंद' ऐसी कहै छे राधिका मोहन-प्रान-अधार ।४० भय सों भारतेन्दु समग्र १५२