पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१९६

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महान माता उदर प्रगट भये हरन भक्त के दंद। दान देत हर्षेनंद-जसुमति हय गय रतनन कंद । "हरीचंद' अशि आनंद फूले गावत देष सध्द ७१ बहे पुरवाई औ बदरिया कि आई रामा, 'हरीचंद' पणिहारी राधा अस गिरधारी कुंज में त्रुलाई वजराई रे हरी। सो छवि कहि सके ऐसी कषि को है । बाँसवा अचाई सुनि सखि उठि आई रामा, राग मलार सब जुरि आई रस बरसाई रे हरी। अनोखी तुही नई एक नारि । माधयी भी जाई जिय अति हुलसाई रामा, पवास रितु में मान करै कोउ लाख तो हुदै बिचारि । कबरी सुनाई मन भाईरे हरी । जोगीहू वन घटा देखिकै धावत ध्यान बिसारि । मिनु उर लाई प्यारी गिय को लुभाई रामा, नाहि 'हरिचद' पछताई रे हरी १२ बड़े बड़े ज्ञानी भैरागी करत भोग तप हारि । तू कामिनि क्यों धीर धरत है वह अचरज मोहि भारि । हरि दिनु काली बदरिया छाई। | कर जोर गिरधर पिऊ ठाड़े करत बहुत मनुहारि । बरसत घेरि घरि चहुँ दिसि ते चामिनि चमक जनाई। हरीचंद हठ छोडि दया करि भुज भरि कोप बिसारि६८ सोइलि कुहुकि हिग मेरे विरहा-भगिन बढ़ाई। खंडिता दादुर बोलत ताल-तलैयन मानहुँ काम-बधाई। जोन देस हाये नंद नदन पतीह न पठाई । आधु ती जमात प्रान बोल दृग अलसात 'हरिचंद दिनु विकल विरहिनो परी सेज मुरभाई ।६६. भीजत भीजत ताल आए मेरे अंगना । सनि फिरि पावस ऋतु आई। लटपटी पाग ते कुसुभी रंग बरसि रायो | पिया बिना फिर पी पी करि के इन पापिन रट लाई । निसि के उनीद जागे कौन लिया-रस पागे अकेले कहाँ ते आए सखा कोऊ सँग ना । फिर बदरी मुकि अति के आई विपति-फौज उठि चाई। देखि अकेली कुटिल काम फिर बीचि कमान चढ़ाई देखो तो कपोलन पै रहयो कहुँ रंग ना । 'हरीचंद' पत्तिहारी देखिये गिरधारी किर बरसत बेसी ही यूदै चहुँ दिसि सो झरि लाई फिर दुख-नदी उमडि हिवरा सौ मेनन के मग आई नील पट असभयौ है चाह को कंगना ।६१ फिर चमकी चकाला चहुंधा तें घिरडिन फेरि डराई सारंग फिर इन मोरन बोलि बोलि के मोहन न सुधि जु दिवाई। आयु अज वाजत महा बधाई । फिर ये कुज हरे भए देखियत जाँ हरि केलि कराई। परम प्रेमनिधि श्री चंद्रावलि चंद्रभानु नृप-जाई । 'हरीचद फिर विकल बिरहिनी परी सेज मुरझाई ।।४ प्रफुलित भई कुंव दून-थेली कीरादिक सुख पाई। फिरि आई बदरी कारी, फिर तलफेंगे पायो प्रान परम रसिक-बर नवलाल-हित प्रगट भूमि पै आई। बिन पिय पची 'याही दुख देखन के मित नारी | चंद्रभानु नृप दान देत बहु हय गय सकल सुटाई । अति व्याकुल ताफत कोउ नाहिन कछु समुभाषन-गरी। | चंद्रकला रानी सुखदानो ताकी कूख सिराई । देखि दसा रोषत दूम बेली घोर सकत नहि धारी आये नदादिक सब मिलके महोभान घर धाई । कोकिला-क सुनत हिय फाटत क्यों जीवे सुकमारी। प्रगटी सखी स्वामिनी को ब्रज सब मिलि नाचत गाई । कछु भेद न जान्यौ जाई। "डरीचाद' विनु को समुलाचे कति कति प्रान-धिपारी ॥६५ प्रगटे बज सुतह तें दूनो करत उछाप बनाई। पक-तता बहुरि चंद्रावति तनया जुगुल सुहाई । मो मन स्याम घटा सी छाई | गुप्त रूप कोत लखत बरसत है इन नैनन के मग पिय विनु बरसा आई । 'हरीचंद श्री विठ्ठल-पद लखि लख्यो मेव सुखदाई ॥७० मन-मोहन बिछुरे सों सब का सूनो परत लवाई। "हरीचद धिन प्रान अचन को नाहिं शस्खात उपाई ॥६६ भादी सुवी पंचमी स्थाती बुध प्रगटे जदु-चंद । जजु ब्रज दूनो बढ्यो अनंद । राग मलार, चौताला अग्रज श्री गिरिधारन जू के तीला ललित अमंद । श्याम घट छाई श्याम श्याम कल भनो स्थामा-श्याम ठाढ़े तामे भोजन सेहे। तैसिय श्याम सारी प्यारी तन सौहें भारी हवि देखि काम-वाम चंचलाहू मोहें । आसावरी तेसोई मुकट मानों धन दामिनि पर वग-पगति तापे मोर नचो है आनंद-सागर आलु उमडि चल्यो भारतेन्दु समग्र १५६