पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१९८

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| गावत गीत सबै ब्रज-बनिता साहत। मुख-चंद । | गप्त रूप कोऊ प्रकट न जानत हलधर सब ससक। गहि पिय भुज-मूल गोपीनाथ अनाच-नाच सखि मन वारत हरिचंद ।९२ जित तित ते धाई टीको ले अति आकुल ब्रज-नारी । निरसन कारन श्याम नवल ससि उमंगी सजिसजसारी। गायत गोप चाप भार नाचत दैदे के कर-तारी। | बावे बजत उड़त दधि माखन द्वीर मनह धन वारी । | वन देत नंदराय उमगि रस रतन धेन विस्तारी। 'हसीनंद' सो निरखि परम सुख देत अपनपोवारी 198 WAraat आइ नद-उसोमति मिलि होत अधिक अनंद । सोभा तो निहारी चलि केसो छाए बरा । भानु बरसाने उदय भी प्रगट पूरन चंद । खंडिता होत जय जयकार यहि पुर देव वरपे फूल | प्रात श्यों उमडि आए कहा मेरे घर छाए "हरीनंद' सब गोपिका के मिटे उर के शूल । एजू घनश्याम कित रात तुम बरसे । सारंग | गरजत कहा कोऊ डर नहिं जैहें भागि आबु दधि-कांदी है बरसाने । झुकि कुकि कहा रहे चली अदा पर से । छिरकति मी-गोग सवै मिल काह को नहिं माने । सजल लखात मानो नील पट ओटि आए आदित घर की सुधि भूली हमको है नहिं जाने । कही दौरे दौरे तुम आए काके घर से । दषि-पूत-ध उड़े ने सिर सो फिरहि प्रतिहि सरसाने। 'हरीचंद' कोन सी दामिनि सँग रात रहे वह आनंद कापे कहि आवै भयो जोन महराने। हम तो तुम्हारे बिना सारी रैन तरसे ।८९ श्री वल्लभ-पद-पद्य-कृपा सो 'हरीचंद कछु जाने।८४ सारंग आये अज-जन धाय धाय । कजली नाचत करत कोलाहल सब मिलि श्याम-विरह में सूझत सच उग तारी दे दे गाय गाय । हम को श्यामहि श्याम हो इक-रंगी। जुरे आइ सिगरे ब्रज-यासी जमुना श्याम गोवरधन स्यामहि टीको बहु विधि लाय नाय । श्याम कुंज बन धाम होइक-रगी। 'हरीचंद आनंद अति वाइयो श्याम घटा पिक मोर श्याम सब कहत नंद सो जाय बाय ।२० श्यामहि को है काम हो इक-रंगी। आशु भयो अति आनंद मारी। 'हरीचंद याही ते भयो है श्यामा मेरो नाम हो इक-रंगी । गोपी सब टीको ले जायें। प्रगटी श्री वृषभानु-दुतारी। मलार मिलि मिलि रहसि बधाई गावे । अनत जाइ बरसत इत गरजत बे-काज । तुम रस-शोभी मीत स्वारथ के सुनहु पिया ब्रजराज । न की कछु सुधि न सम्हारी। दामिनि मी कामिनि अनेक लिए करत फिरत हो राज । 'हरीचंद निव प्रेम-पपीछन तरसावत महराज ।८६ हेम पिय सँग चलि री हिंडारे फूल सुख बाइयो तेहि छन अति भारी या सावन के सरस महीने मेटि अरी विय मूल । 'हरीचंद' छबि लखि बलिहारी ।५१ आबु श्री वल्लभ के आनंद । | प्रगद भये ब्रज-जन-सुखदायी पूरन परमानंद । ठाढ़े देत असीस सुछ । होत कोलाहल मोहन प्रगटे भक्तन के सुखकारी नाचत गोप देत सब तारी। दान देति हैं मनि-गन हीरा । हम पटम्बर पीअर चीरा । वेद पढ़त द्विववर बहु भारी । देखि हरी भई भूमि रही सब बन-दुम-बेली फूल । | यह रितु मानिनि-मान-पतिव्रत देत सर्व उन्मूल । होन सँजोगिनि सुत विरहिन के लिए उठत है हल । 'हरोचद चल ऐसा समय तू मिल राग भैरव अड प्रात काल ब्रज-बाल पनियाँ भरन चली नदराय गोरे गोरे तन सोहे कुसुमी को नदरा । खाही समेघन परि घरि नभ खाए वामिनि दमक देखि होत जिव कदरा । बोलत चातक मोर सीता चले मकोर जमुना उमड़ि चली बरसत अदरा । हरीचंद अलिहारी उठि बैठो गिरिधारी 103 भारतेन्दु समग्र २५८ के