पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०१

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OX अकेली मैं सेजो सोई । बूंद झमक दामिनी चमक लखि कै करवट रोई । बिथा सो नहीं सही जाती । उजेरी रात न मन मानी । कोई करवट नहिं कल पाती । पिया बिन मेरे अंधियारी । विपति यह सही नहीं जाती । याद करि दरकत सखि छाती TO हरीचद' सुख कहत न आवै आनंद बाइयो खोरि खोरि ।११० कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती ।। भादौं मास अंधेरो लखि कै रही धीर खोई ।। राग मलार हिंडोला व्याकुल सूने घर में तड़पू पास नहीं कोई । गिरधरलाल हिंडोरे मूसें। पंच-रंग फूल हिंडोरे बनायो निरखि निरनि जिय फूलें । को कहि सकै भई जो सोभा कालिंदी के कूलें। हरीचंद' यह कौतुक लखिकै देव बिमानन भूलें ।१११ | कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती। राग परज कार मास सब सांझी खे- सरद विमल पानी । मैं ब्याकुल बिनु प्रान-पिया के कहत न मुख बानी । एजी आज झूले छे श्याम हिंडोरें । वृंदाबन री सघन कुज में जमुना जी लेता हलोरें । चदा उलटी अगिनि लगावे मोहिं बिरहिनी जानी । सँग थारे वृषभानु-नंदिनी सोहै छै रंग गोरे । 'हरीचंद' जीवन-धन वारी मुख लखता चित चोरे।११२ कैसे रैन कटै बिनु पिय के नीद नहीं आती । ईमन कातिक मास पुनीत जानि सब न्हाती बृज-नारी । कमल नैन प्यारी झूले झुलावै पिय प्यारी । मानि दिवाली दीप-दान दे करती उँजियारी । कबहुँक झोंटा देत कबहुँ लगावे कंठ कबहुँ संवारत सारी, करत मनुहारी । भई बियोगिन व्याकुल मैं सब रैन चैन हारी । कबहुँ संग झूलै सोभा देखि देखि फूले कबहुँ उतरि झोंटा देत भारी भारी, डरत सुकुमारी | कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती । 'हरीचद' बलिहारी झुकि आई घटा कारी अगहन आया सब मन भाया पड़ा जोर पाला । बरसत घोर बारी मुकुट, छावत गिरिधारी ।११३ | लपटि लपटि पीतम से सोई घर घर में बाला । राग अड़ानो मैं घर बीच अकेली तड़पू बिना नंदलाला । सावन आवत ही सब द्रुम नए फूले भई सौ जुग की इक राती । ता मधि झूलत नवल हिंडोरे । कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती । तैसिय हरित भूमि तामैं बीरबधू सोहै तैसीयै लता मुकि रही चहुँ कोरे । पूस मास में सीत जोर है दुगुन रात होती । बिना पियारे प्राणनाथ मैं किससे लपट सोती । तैसोई हिंडोरो पच-रँग बन्यो सोहत सेब सूनी लखि के रोती । तैसी ही ब्रज-बधू घेरे सब ओरे । तड़प तड़प कर बिरह-बोझ मैं किसी भांति होती । 'हरीचंद' बलिहारी तापै मूलै राधाप्यारी भई मेरी पत्थर की छाती । मोहन झुलावै झोंटा देत थोरे थोरे ।११४ कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती । बारह-मासा माघ मास में मदन जोर भयो रितु बसंत आई । मास असाढ़ उमड़ि आए बदरा ऋतु बरसा आई । बौरे बौर फूल बन फूले मोरन रट लाई । बोले मोर सोर चहुँ दिसि घन-घोर घटा छाई । पपीहन पी पी रट लाई । कोकिल कूक सुनत जिय दरकत मुरछित घबराई । भयो अरभ बियोग फिरी जब काम की दुहाई । न पाई मोहन की पाती । देखि मेरी तबियत घबराती । कैसे रैन कटै बिन पिय के नोंद नहीं आती । कैसे रैन कटै बिनु पिय के नींद नहीं आती । फागुन खेले फाग रंग गाथै मीठी बोली । सावन मास सुहावन लागै मन-भावन नाहीं । चले रंग की पिचकारी उडै अबिर-झोली । झूलें काकै संग हिंडोरा देकर गल-बाही । देखि मेरे हिय लागी होली । बरसि घन कुंजन के माहीं। भयो काम को जोर दरकि गई जोबन से चोली । कौन बचावै आप भीजि मोहि रखि अपनी छांहीं। जाय यह कोई समझाती 10 ओढ़ कर शाल औ दुशाला । फिरी जग काम को दुहाई । वर्षा विनोद १६१