पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०३

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घोकि चोकि निसयत चारहु दिसि मग मनु कंज विद्यावै। पद परि तरवा चूमि निरखि ग जन्म सुफल करवायो नाचत गावत करत कुलाइल प्रेम उमगि अकुलानी। हसत प्रमोद करत मन फलत बोलत कोकिल बानी । प्रति रस-मत बदल नहिं काह उछालित रस आवेसा। अंचल खुलत नाहि सधि तन को भई एक ही भेसा । सब पूज के शंगार रुप रस भाग सुहाग सहायो।

रास-रस प्रज में प्रगट भया। मोहन की सरबस संपति सँग मिलि बरसाने आयो फूली फिरत सबै ब्रज-अनिता तन को ताप गयो । को कहि सके कहा कहि भाषै कषि पै नहिं कहि जाई ६. लीला-रुप शील-गुन-सागर ब्रज आनंद भयो । जो सुख सोमा ता छन बादी अनुभव नयन लखाई 'हरीचंद' प्रजचंद पिया को आनंद अतिहि दयो ।१२३ नद-भवन ते बढ़ि सुख तेहि छन क्यो, करि प्रगटायो। "हरीचंद बल्लभ-पद-बल से श्याम संग श्यामा रंग भरी राजत । अरघ होट ए॒वट पट कीन्हे केवल यह राखि पायो ।१२५ लखि रति मन्मथ लाजत । ६० हमारे तन पावस बास करयो । ७० नील निचोल मध्य मुख ससि की बरसत नैन-चारि सष ही छन दुख-धन उमड़ेि पर्यो फैली घटा सहाई। जुगनूं चमकि अंगार-विरह की श्वासा वान भरयो । झिलमिल ज्योति एक मिलि 'हरीचंद हिय करो मिति दीसति महलन अलि छवि छाई। सीतल ना-तरु गात जरयो ।१२६ श्यामह बने श्याम रंग हमारे भाई श्याम जू की जीति यागे अनुरागे पिय प्यारी। हारो सदा जहाँ पिय प्यारो यह प्रीति की रीति । 'हरीचद' लखि जुगुल माधुरी प्रेम होड़ से बहु नायक मनि खोई श्याम प्रतीति । सरवस ठान्यो बारी ।१२४ जदपि निरंतर लखत रहत रूख तऊ नाम की भीति । असाधरी होत अधीन भौह फेरन में यहै यहाँ की गीति । सुनत जनम वृषभान-लली को उठि धाई ब्रज-नारी । 'हरीचंद' याही सों सब सों सरस जुगल की भीति ।१२७ मंगल साज लिये कर कंजन पहिरे रंग रंग सारी । सो जैसे तैसे उठि धाई सुनतहि स्वामिनि नामा । शीरति-सुता प्रगट वरसाने गायो गीत अधायो । भादो नदी सरिस उमगाई चहुँ दिसि ब्रज की बामा । करि सिंगार चली घर ते मंगल साज सजाये। र सौहै। साधन कंचन-धार विराजे चौमुख दीप जगायो । याजर नयन अवन-तल तरपन देखत ही मन मोहै । अई मिलि वृषभानु गोप के झुम झुम मंडित मुस ससि सोभित थेदी होर जगाई । थापे ने कलस धराये टीशे सवन शगायो । अपर तमोल रंग सों भीने गावत सरस बधाई । गावत गोपी तन मन ओपी शर निसान बजायो । आनंद उमगे गात गात सब हिय कति अधिक उष्टाह । 'हरीचंद तेहि समय जाह के बहुत बधाई पायो ।१२८ सघ घर पुत्र भयो धन बायो सघ ही के मनु ब्याह । लोचन तृषित दरस बिनु व्याकुल पगाह सो बढ़ि धावे । आइ जुरी वृषभानु-भवन में मुख निरखत सुख पायो । धनि पल धनि यह घरी सोहाई। स्वामिनि भानु-भवन प्रगटाई । हम जो मनायत सो दिन बेनी सिथित खसित कच झुमरन लुलित पीठ पर आनंद उर भायो । | पनि दिन धनि निसि धनि छिन जामें तीन लोक राव जू आजु बधाई दी तुम्हारे प्रकट भई श्री राधा कल्पो हमारो कीजै। गोपिन को मनि-गन आभूषन दै दै आशिष लीये । ग्वालन पाग पिठोरी दीजे गाते सब दुख श्री तुम्हरी सुता जगत ठकुरानी जायो मुख लखि लीजे 'हरीचंद वृषभानु-सुता के चरन-कमाल-रस पीजे।१२९ हमारी प्यारी सखियन की सिरताज । भोरी गोरी पिय-नस बोरी लाव-सुहाग-जहाव । प्रज-रानी कीरति सुख-दानी पूरनि जसुमति-काल । नंद इवा की बयन-पूलरी मोहन की सुख-सार । मानु राय के घर की दीपक पालनि भक्त-समाज । हरीचद पिय-सहित करी नित अविचल ब्रज में राज ।१३० वर्षा विनोद १६३