पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०४

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विनय-प्रेम पचासा [सन १८८१ में प्रकाशित ] घ भयानक आये विनय-प्रेम-पचासा राग असायरी जैसे श्री वृन्दावन-देखी। जुगल-केणि-रस बलभियन धिनु और कहा कोउ जाने। जो देवन को देव कनाई सोक जा पद-सेवी । चिनु अधिकारी कोन और या गुप्त रसहि पहिचाने । अगम अपार जगत-सागर के जाके गुन-गन खेली। तर्क वितर्क महा चतुराई काव्य-शोष-निपुनाई। 'हरीचद की यह बीनतो कबहूँ तो सुधि लेवी । कपडं वाके निकट न आपत लाख कही न बनाई। के तो जगत-विषय की तिन सों गंध वचन दीन-जन सों जुगति नई निझारी लाल । के विज्ञान महा तम पदिक सगरे रसहि सुखाये बहरावन हित हम सबन भए बाल-गोपाल । जो कोड कोमहा कमाल तंतु सो महा मत्त गज बांधे। 'जनम करम पदि अप को बहकि जई से और । तो या मरमहि समुझि सके कछु पै जो एकहि साथै इम बरामन तविहे न आरो छाती-सिरमोर । साधन विते जगत में गाए तिनको फल का और जदपि वास तव में दे जीवडि दोसी नाथ । यह तो उनकी कृपा साध्य इक साधन करे सो पारे । पे निरघुन शेतुक तखत तुम क्या वाके साथ । जुपे प्रवाह छुट्यौ तो लागी आई महा मरजादा । भयो पाप सों पाप बिनु वग न जियत छन एक । ऐसे जीवदि होइ क्यों तुव पद-पदम विवेक । उद्यपि यह नोकि प्रवाह सों रंग तक है सादा । अतिहि निकट परलोक लोक दोउ जो या में कछ बोले। न्याय-परायन साँच तुम सांचे अहो दयाश । देखें निवास उभय गुन किमि मेरे अप-काल । तनिकहु पग खिसक्यो तो इन्यौ अमृत में विष चोले । जो हम जैसो कछु करे तुम तैसो फल रात दिना के सुने किये वे अति अभ्यासित भाव । तो जग की गति आपढ़ करी बिसारि सनेहु ॥२ तिमि बिनु आयसु कठिन दुर्ग में सके न कोऊ जाय । लिन सो केसे बचे कहो मन कोटिक करौ उपाय । गग यथा-पचि | लेसेहि उनकी कृपा बिना नहि याक्रो और उपाय । नेनन में निवसी पुतरी हवे हिय में बसी हो पान पद पद पै अव घर करोरन वृत्ति सहज अधगामी । अंग अग संचरहु सक्ति हो ए हो भीत सुजान । | काम क्रोध उपजत छिन छिन में होउ भले कोउ नामी। मन में वृत्ति वासना स्खे के प्यारे करी निवास । इन रिघुगन को जीवन को जो तप आदिक कछु साधै । ससि सूरज हवे रैन-दिना तुम हिय-नभ करहु-प्रकास । तो अभिमान जानकारी को आइ सकल अंग आँधै । असन होइ लिपटो प्रति अंगन भूषन रतन बाँघो। ।। सूछमता को परम प्रान को ताको अतर निकारे । सोधी हवे मिलि जाऊ राम प्रति अोपानपति मायो । । तो या रसहि कछुक कछु जाने औरन आन विचारे । (विलसी | कहिए जुपे होइ कडिबे की पुनि भासे न कडाई । फूल-माल वे कंठ लगी म निज हरीचंद' विनु बल्लभ-पद-क्त नभ हथे पूरी मम आँगन में में पवन होह लामो यह निधि नहिं लहि जाई ।४ मन पागो। तोसों न का जाचौ । इतनो ही जाँचत करूना-निधि तुम ही में इक राचौं । में तुमही प्यारे तुम-लय तन मम होय खर कुकुर लो बार बार पेअरच-लोभ नहि नाचौं । या पाखान-सरिस हियर पै नाम तुम्हारोइ खानों । हो मुलग-मेंदुर सिर की अधर राग हवे सोही। स मन मोहौ। से सुगंध मो धरहि वसाब रस | अवनन पूरी होइ मधुर सुर अंजन होइ कामना जागहु हिय में कर सैन रहो ज्ञान में 'हरीचंद' यह भाव रहे नहि प्यारे हम तुम दोय । विस्सुलिग से जग-दुख तजि भारतेन्दु समग्र २६४