पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०६

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640h 'तैसहि इतै घठाइ राखिए 'हरीचंद' की लाज ।१६ 'हरीचंद' और सों न मेरो संबंध कछु करनी करुनानिधि केसव की कैसे कहि कहि गाऊं। आसरो सदैव एक लोचन बिसाल सों। अधम जीव परिमित मति रसना एक पार क्यौं पाऊँ। मांगों तो गुपाल सों न मांगी तो गुपाल ही सों जग मैं जैसी होत तितोही जगत जीव कहि जाने । रीझों तो गुपाल पै औ स्त्रीभो तो गुपाल सो ।२१ तुम तो सब विधि करत अलौकिक किमि तेहि नाथ बखाने। द्वारहि पैं लुटि जायगो बाग औ मात पिता तिय मुनिह जो अघ सहि न सके लखि भारी। आतिसबाजी छिने में जरेगी। सो तुम तुरत छमत करुनानिधि निज दिसि लखि बनवारी।। बैहैं बिदा टका लै हय-हाथिहु कहँ लौ कहौं दयानिधि तुम सों जानहु अंतरजामी । खाय-पकाय बरात फिरैगी । 'हरीचंद' से अधिहि चाहिए तुमरेहि ऐसो स्वामी ।१७ दान दे मातु-पिता छुटिहैं 'हरीचंद' सखीहु न साथ करेगी। लखहु प्रभु जीवन केरि ढिठाई। निज निंदा मेटन हित तुम महं प्रेरक शक्ति लगाई । गाय-बजाय जुदा सब हवैहैं अकेली पिया के तू पाले परेगी ।२२ बुरो भलो सब कहत बुद्धि-बस मनह की रुचि पाई । कहँ सबै हरि करत जीव को दोष नहीं कछु भाई । पूजिहों देवी न देव कोऊ किन दैव करम संयोग आदि बहु सब्दन लेत सहाई । वेद-पुरानहु ऊंचे पुकारौ। अपने दोस और पर थापत लखहु नाथ चतुराई । काहू सों काम कछु नहिं मोहि सबै अपनी अपनी को सम्हारो। शास्त्रनहू कछु प्रेरकता कहि उलटो दियो भुलाई । सब मैं मिल्यौ सब सों न्यारो कैसे यह न बुझाई । हो बनिहीं के नसाइहौं यासों यहै प्रन है 'हरिचंद' हमारौ । मिल्यौ कहें तो पाप पुन्य दोउ एकहि सम हदै जाई । जुदो कहै किमि तुम बिनु दूजो सत्ता नाहि लखाई । मानिहौं एक गुपालहि को नहि कर्ता बुधि-दायक जग-स्वामी करुनासिंधु कन्हाई । और के बाप को । यामें इजारौ ।२३ 'हरीचंद' तारहु इन कहँ मति इनकी लखौ खुटाई१८ | नैनन के तारे दुलारे प्रान-प्यारे मेरे प्रभु हो ! कब लौं नाच नचैहो । दुख के दरन सुख-करन बिसाल हैं। अपने जन के निलज तमासे कब लौं जगहि देखैहौ । मेरो ध्यान मेरो ज्ञान मेरे वेद औ पुरान बिबिध प्रमान मेरे एक नंदलाल हैं। कब लौं इन बिमुखन के मुख सों निज गुन-गनहि लजैहो। कहलौं जिन पैसतत हसत जम तिनसों हमहि हँसैहो। 'हरीचंद' और सों न काम सपनेहूँ मोहिं मेरे सरबस धन जसुदा के बाल हैं। छिन छिन बूडत जात पंक लखि मोहिं कब चित्त द्रवैहो। मेरी रति मेरी मति मेरे पति मेरे प्रान जनम जनम के निज 'हरिचंदहि' कब फिरिकै अपनेही ।१९ मेरे जग माहि सबै केवल गुपाल सकल की मूलमयी वेदन की भेदमयी छप्पय ग्रंथन की तत्वमयी वादन के जाल की । जीव-धर्म सों कुटिल मंद-मति लोक-बिनिंदित । मन-बुद्धि-सीमामयी सृष्टिहु की आदिमयी काम-क्रोध-मद-मत्त सदा संसार मलिन मति । देवन की पूजामयी जीवमयी काल की । अधिर अबोध अधीर अधरमी अति अलानी । ध्यानमयी ज्ञानमयी सोभामयी सुखमयी पुरुषारथ सों रहित निबल अति पै अभिमानी । गोपी-गोप-गाय-ब्रज-भागमयी भाल की। सब भाँति नष्ट लखि दास निज जानि कृपा कर धाइए । भक्त-अनुरागमयी राधिका-सुहागमयी प्रभु महा हीन 'हरिचंद' को दीन जानि अपनाइए ।२० प्राणमयी प्रेममयी मूरति गोपाल की ।२५ कवित्त पाहि पाहि प्रभु अंतरजामी । मजों तो गुपाल ही को सेवौं तो गुपाले एक तुमसों छिपी न कछु करुनानिधि कहा कहाँ खग-गामी। मेरो मन लाग्यो सब भाँति गोपाल सों । तुम्हरो कहत सबै मोहि मोहन जदपि पतित मैं नामी । मेरे देव देवी गुरु माता पिता बंधु इष्ट ताकी लाज राखि 'हरचंदहि' बखसौ चरन-गुलामी।२६ मित्र सखा हरि नातो एक गोप-बाल सों। कहा कहीं कदु कहि न रही। हैं ।२४ भारतेन्दु समग्र १६६