पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०७

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विधि ते अबलों पंडित कबियन रचि-पचि सबहिं कही। | हाँ जो पै मरजाद मिटावहु करुना-नदी बढ़ाई। महा अधम हम दीनबंधु तुम सब समरथ अघ-हारी । तो या महापतित 'हरचंदहि' सकहु नाथ अपनाई ।३१ कहनो य है अनेकन विधि सो युक्त अनेक विचारी । प्रेम मैं मीन-मेष कछु नाहीं । नेति नेति जेहि बेद पुकारत तासों बाद बढ़ाई । अति ही सरल पंथ यह सूधो छल नहिं जाके माहीं । फल कछु नाहि उलटि खीझन-भय यामैं कह चतुराई। हिंसा द्वेष ईरखा मत्सर मद स्वारथ की बाते । सब जानत सब करन जोग तुम नेकु जु पै इत हेरौ । कबहूँ याके निकट न आवै छल-प्रपंच की घातें । लखि सरनागत पतित दीन 'हरिचंद' सीस कर फेरौ।२७ | सहज सुभाविक रहनि प्रेम की पीतम सुख सुखकारी । मिटत नहिं या मन के अभिलाख । अपुनो कोटि कोटि सुख पिय के तनिकहि पर बलिहारी । पुजवत एक सबै बिधि तन से होत और तन लाख । जहं न ज्ञान अभिमान नेम ब्रत विषय-बासना आवै । दिन प्रति एक मनोरथ बाढ़त तृष्णा उठत अपार । रीझ खीज दोऊ पीतम की मन आनंद बढ़ावै । घृत जिमि अग्नि सिदि तिमि जग में होत एक ते चार । परमारथ स्वारथ दोउ पीतम और जगत नहिं जाने। जोग ज्ञान जप तीरथ आदिक साधन तें नहीं जात । 'हरीचंद' यह प्रेम-रीति कोउ बिरले ही परिचाने ।३२ 'हरीचंद' बिनु कृष्ण-कृपा-रस पाएँ नहिंन अघात।२८ अहो हरि दम बदि बदि कै अघ कीन्हें । तुम जो करत दीनन सों मोहन सो को और करै । लोक बेद निंदत जेहि अनुदिन ते हम हठि सिर लीन्हें। महापतित जन वेद-विनिदित को तिन को उधरै । जामैं जान्यौ दोष अधिक अति सो कीनों चित लाई । सब बिधि हीनन सो करि नेहहि कौन दया बितरै । तुमसों बिमुख होन की कीन्हीं लाखन खोज उपाई। 'हरीचंद' की बांह पकरि कै को भव पार करै ।३३ जान्यौ जिन्हें प्रतच्छ भयंकर नरक-गमन को हेतू । तेइ आचरन किये नितही नित कहाँ कहा खग-केतू । गोपालहि रुचत सहज ब्यौहार । नाम रूप अपराध अनेकन जानि जानि बिस्तारे । निहछल बिनु प्रपंच निरकृत्रिम सब विधि बिना बिकार । थके बेद जम अघह थाके पै हम अजहुँ न हारे । सहब प्रेम पुनि नेम सहजही सहज भजन रस-रीति । बहुत कहाँ लौं कहीं प्रानपति सुनत सुनत अकुतौहो । सहज मिलनि बोलनि चलनि सब सहजहि प्रीति प्रतीति। तुमरो नाम बेंच अध करने यह हमही मैं पैहो । हाव भाव चितवनि कटाक्ष अनुराग सहज जो होय । तुम्हरे बिरद-पनो सो मेरो पतित-पनो अधिकाई । भावै सोई मेरे हरि को करौ कोटि कछु कोय । 'हरीचंद' तारे इतने पै पावन पतित कन्हाई २९ पूजा दान नेम ब्रत के पाखंड न हरि को भावें। बादि रसिकता ज्ञान ध्यान जो हरि-पद नेह न लावै । नेह हरि सो नीको लागै । तासों सहज प्रम-पथ वल्लभ सहबहि प्रगटि चलायो । सदा एक-रस रहत निरंतर छिन छिन अति रस पागे। 'हरीचंद' को सहजहि निज करि नहिं बिगोग-भय नहिं हिंसा जहँ सतत मधुर हवै जागै। निज जस सहज गंवायो ।३४ 'हरीचंद' तेहि तजि मूरख क्यों जगत-जाल अनुरागै।३० प्रभु हो अपुनो बिरुद सम्हारो । प्रभु मोहिं नाहिं नैकहू आस । जथा-जोग फल देन जनन की या थल बानि बिसारो। सब बिधि मैं तजिबेहीलायक यह जिय दृढ़ विश्वास। न्यायी नाम छाँड़ि करुनानिधि दया-निधान कहाओ । शास्त्रन के अघ की जु कहानी तिनकी नहिं कछु बात । मेटि परम मरजाद श्रुतिन की कृपा-समुद्र बहाओ । करुनामय को करनिहु सों मैं दंडहि जोग लखात । अपुनी ओर निहार साँवरे बिरदहु राखहु थापी । जिन दोसन सो सकुल दुसासन को तुम कीन्हो नास । जामै निबहि जाँहि कोऊ विधि 'हरिचंदहु' से पापी ।३५ ते तिन, सों बढ़ि मेरे मैं करत एकत्रहि बास । शूद्र तपी सुनि बध्यो जाहि तुम तपत जदपि सो साँच । महिमा मेरे गोविंदजू की कही कौन 4 जाई । महानीच हम भंड तपस्वी सो रहिहैं किमि बाँच । परम उदार चतुर चिंतामनि जानि निसोमनि-राई। मिथ्या अपजस सुनि-सुनीच-मुख तजी सिया सी नारि। सेवा तनिक बहुत करि मानत ऐसे दीनदयाला । सत्य सत्य हम महाकलंकिहि तजिहाँ क्यों न मुरारि । तुलसी-दलहि मेरु करि समझत ऐसो कौन कृपाला । जिन कर्मन सों असुर स-कुल बारंबार सँहारे । निज जन के अपराध कोटि सत तनहूँ सों लघु मानै । ते अब कौन नहीं हैं हम मैं भाखहु नंद-दुलारे । करनी लखत न कबहुँ भक्त की अपुनो करिकै जाने ।। विनय प्रम पचासा १६७